चंद्रबाबू की चांदनी से खिल उठी Congress! क्या BJP पर ग्रहण लगेगा?
एन चंद्रबाबू नायडू मूल रूप से कांग्रेसी हैं। 1978 में कांग्रेस के टिकट पर पहली बार विधायक बने थे। तभी महज 28 साल की उम्र में वे आन्ध्र प्रदेश में मंत्री भी बन गये। इमर्जेंसी के उस दौर में कांग्रेस के साथ रहे चंद्रबाबू नायडू ने एक बार फिर कांग्रेस से हाथ मिलाया है। 1978 और 2018 के दरम्यान बीते 40 साल में राजनीतिक फ़िजां भी बदल चुकी है। सवाल ये है कि क्या ये चांद कांग्रेस के लिए पूर्णिमा और कांग्रेस विरोधियों के लिए अमावस्या साबित होगा?
चांद की ये खासियत होती है कि वह अपने आप में कभी घटता बढ़ता नहीं है मगर उसका प्रभाव घटता-बढ़ता रहता है। कई बार तो हम उसे मिट गया मान लेते हैं लेकिन ऐसा होता नहीं है। चांद फिर उग आता है। चंद्रबाबू नायडू भी राजनीति में…चाहे आन्ध्र प्रदेश की हो या राष्ट्रीय राजनीति…घटते-बढ़ते-मिटते.. दिखते रहे हैं लेकिन ज़रूरत के वक्त यह चांद दिख ही जाता है।
एनटी रामाराव की राजनीतिक विरासत पर कब्जा कर लेने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में भी चंद्रबाबू नायडू कांग्रेस विरोध के ध्रुव बन गये थे। प्रयोगधर्मी गैर कांग्रेसवाद की राजनीति में उन्होंने अपना प्रभाव भी चांद की तरह बनाए रखा।
1996 और 1998 के बीच जब एक बार फिर गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो चंद्रबाबू नायडू की भूमिका अहम थी। यहां तक कि आधी रात के बाद उस समय सो चुके इन्द्र कुमार गुजराल को अगले दिन प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने की सूचना देने वाला फोन भी दिल्ली के आन्ध्र भवन से ही गया था।
मगर, जैसे ही चंद्र बाबू नायडू ने 1998 में बीजेपी का साथ दिया, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बन गयी। मगर, 2004 आते-आते स्थिति बदल गयी। बाजी पलट गयी। यूपीए ने एनडीए को सत्ता से बेदखल कर दिया।
एक बार फिर एनडीए को सरकार बनाने का मौका तब मिला जब एन चंद्रबाबू नायडू ने 2013 में एनडीए के संयोजक की भूमिका निभाई। 2014 की जीत में चांद के महत्व को बीजेपी ने नहीं समझा। 2018 आते-आते चांद ने राह बदल ली।
चांद की एक खासियत और होती है कि वह हर ग्रहण का कारण होता है। आन्ध्र प्रदेश की सियासत हो या केन्द्र की सियासत कांग्रेस की सियासत में चंद्र बाबू नायडू हमेशा ग्रहण का कारण बने। एनटी रामाराव के साथ मिलकर नायडू ने यह काम कर दिखलाया, फिर अपने दम पर भी ऐसा किया। फिर केन्द्र में तीसरा मोर्चा और बीजेपी के साथ मिलकर भी वे ग्रहण के दुर्योग कांग्रेस के लिए बनाते रहे।
पूर्णिमा की वजह बनने को आतुर नज़र आ रहे हैं। ऐसा करते हुए वे उस बीजेपी के लिए अमावस्या का दौर और फिर ग्रहण की स्थितियां पैदा करने को भी तत्पर दिख रहे हैं जिसे उन्होंने पूर्णिमा का आभास 2014 के आम चुनाव में कराया था।
चंद्रबाबू को बीजेपी विरोधी मोर्चा का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी मिली है। एनडीए का नेतृत्व कर चुके चंद्रबाबू नायडू की स्वीकार्यता देश भर में है। वे वाम को जोड़ सकते हैं, दक्षिण को तोड़ सकते हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण तक की सियासत में उनकी मजबूत पकड़ है। उनके करीबी नवीन पटनायक भी हैं, ममता बनर्जी से लेकर मायावती भी। स्टालिन हों या उद्धव, लालू हों या मुलायम-अखिलेश सबको वे व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं। राजनीति के इस चांद का यही महत्व है।
कांग्रेस खुश इसलिए है कि वह बीजेपी से बदला चाहती है। अपनी हार का बदला। मगर, वह ये भी जानती है कि भ्रष्टाचार का प्रतीक बन चुके यूपीए में लड़ने का दमखम नहीं रहा। इसलिए नया मोर्चा बनाना जरूरी है और वह मोर्चा भी एनडीए से बड़ा और मजबूत होना चाहिए। यह काम कांग्रेस के वश की बात नहीं थी। वह अपने ही यूपीए को किस मुंह से भंग करती। यही वजह है चांद को कांग्रेस की गली में आने का मौका मिला है।
कांग्रेस जानती है कि चांद अगर उसकी गली में आया है तो रौशन उसका घर-बार ही होगा। उसके दरबार में ही चांदनी रहेगी। जब राजनीतिक फ़िजां में बदलाव होंगे, तो कांग्रेस की स्वीकार्यता भी बढ़ती चली जाएगी। बीजेपी की हार भी कांग्रेस की जीत है। हिस्सा छोटा-बड़ा हो सकता है, मगर जीत का स्वाद चखने को कांग्रेस आतुर है और एन चंद्रबाबू नायडू यह बताने को आतुर हैं कि चांद की अहमियत समझने की जो गलती एनडीए ने की है, उसका अहसास कराना जरूरी है।