‘भारत माता की जय’: फ़ारुक अब्दुल्ला की देशभक्ति या सियासत
कश्मीर में ऐसी बकरीद कभी नहीं हुई। न देखी गयी, न सुनी गयी। ऐसा लगा मानो चंद लोगों का बकरीद के त्योहार पर कब्जा हो गया हो। वे चाहेंगे तो कोई नमाज पढ़ेगा, नहीं चाहेंगे तो नहीं पढ़ सकेगा। श्रीनगर के हजरत बल मस्जिद पर फारूख अब्दुल्ला को नमाज नहीं पढ़ने दिया गया, उनके साथ धक्कामुक्की की गयी और जूते उछाले गये।
कश्मीर के अलग-लग हिस्सों में बकरीद मनाते तीन पुलिसकर्मियों और एक बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या कर दी गयी। वहीं सुरक्षा बलों पर पथराव के साथ-साथ IS और पाकिस्तानी झंडे फहराए जाने की भी घटनाएं हुई हैं। फारुख अब्दुल्ला से नाराज़गी की वजह बतायी जा रही है कि श्रीनगर में अटल बिहारी वाजपेयी के सम्मान में हुए श्रद्धांजलि समारोह के मौके पर उन्होंने ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए और लगवाए।
अपने साथ हुई घटना के बाद अब्दुल्ला ने कहा कि ये सभी लोग उनके अपने हैं और वे किसी से डरने वाले नहीं हैं। अमन पसंद लोगों की आवाज़ देशभर में कमज़ोर पड़ रही है। गले मिलने वाले को ही गलत बताया जा रहा है। कश्मीर ही क्यों पंजाब भी पीछे नहीं है। नवजोत सिंह सिद्धू पाकिस्तान क्या चले गये, लौट कर आने के बाद इतनी गालियां, इतने सवाल… और अब तो खुलेआम बजरंग दल ने सुपारी बांट दी है। सिद्धू को मारने का फ़रमान जारी कर दिया है, 5 करोड़ रुपये का इनाम रख दिया है।
अगर हम बीते दिनों की याद करें तो लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना के मजार पर जाकर श्रद्धा के फूल चढ़ाए थे। तब पाकिस्तान से लौटकर आडवाणी के साथ क्या हुआ था? बीजेपी ने लालकृष्ण आडवाणी से पार्टी की कमान छीन ली। ‘मार्गदर्शक’ बना दिया। जसवंत सिंह को बीजेपी ने पार्टी से निकाल दिया। गुनाह सिर्फ इतना था कि मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ उन्होंने अपनी किताब में कर दी।
नेहरू और पटेल से ऊंचा कद वाला बता दिया। जसवंत सिंह ने पार्टी से निकलना कबूल किया लेकिन अपने विचार के साथ समझौता करना कबूल नहीं किया। यह फ़ख्र की बात है कि फ़ारूख अब्दुल्ला ने उन तत्वों को ललकारा है जिन्होंने ‘भारत माता की जय’ और ‘जय हिन्द’ के नारे लगाने पर उनका प्रतिकार किया। जिस जमात के बीच फारूख हैं वहां इतनी दिलेरी दिखाना कोई आसान काम नहीं है। जब एक घटना किसी सूबे में घटती है तो उसका असर पूरे देश पर होता है।
चाहे ये घटना कश्मीर में हो या शेष हिन्दुस्तान में। कश्मीर में घटने वाली घटना से समूचा देश उद्वेलित होता है। वहीं दूसरी ओर समूचे देश में हिन्दू-मुसलमान करने और उन्माद पैदा करने का असर कश्मीर में भी होता है। कश्मीर में फारूख अब्दुल्ला की आवाज़ कमजोर होती है और वे भारत माता की जय नहीं बोल पाते हैं तो इसके लिए काफी हद तक पूरे हिन्दुस्तान की आबोहवा भी जिम्मेदार है। अब दिल्ली में तुगलक रोड का नाम अटल बिहारी वाजपेयी के नाम से करने की तैयारी है।
मुगलसराय पहले ही दीन दयाल उपाध्याय स्टेशन हो चुका है। गुजरात में अहमदाबाद का नाम भी कर्णावती के नाम पर करने की तैयारी है। वैसे भी गुजरात 2002 के बाद से बदल चुका है। अब वहां एक ही कॉलोनी में हिन्दू और मुसलमान नहीं रहते। पूरे देश में माहौल बदला है। केरल में बाढ़ को ‘मुसलमानों पर विपदा’ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।
विदेश से जो मदद की पेशकश हुई है उसका स्वरूप भी स्वस्थ नहीं है। ये मददगार भी मुसलमान बनकर मुसलमानों की मदद में सामने आए हैं। जबकि, सच्चाई क्या है? केरल में जितने मुसलमान हैं उससे दो से ढाई गुणा गैर मुसलमान हैं। जब हम खुद देश में उन्माद पैदा करते हैं तो दुनिया भी हमें उन्मादी समझने लगती है। यह अवसर इस बात का प्रमाण है।
भारत ने विदेशी मदद ठुकराकर अच्छा निर्णय लिया है लेकिन यह निर्णय स्वागतयोग्य तभी होगा जब हम ऐसी स्थिति पैदा करें कि बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए हम कोई कसर ना छोड़ें। ऐसा न हो कि हम मदद भी ना करें और विदेश से भी मदद ना लें। असम में एनआरसी के नाम पर जो उन्माद पैदा हुआ, उसका असर केवल असम तक नहीं सीमित नहीं रह सकता।
जो हिन्दू हैं वो शरणार्थी और जो मुसलमान हैं वो घुसपैठिया, ये नीति ख़तरनाक है, विभाजनकारी है। हर समस्या को हिन्दू और मुसलमान में बांटकर देखने की पैदा हो रही प्रवृत्ति ने सच बोलने वालों की ज़ुबान काट ली है। अब जो सच बोलता है उसी पर हमले होते हैं। चाहे वे फारूख अब्दुल्ला हों या कि नवजोत सिंह सिद्दू।