शहनाई के बिस्मिल्ला : संगीत का अटल सुर
बिस्मिल्लाह ख़ान को गुजरे हुए 12 साल हो गये। ऐसा भी कह सकते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी बिस्मिल्लाह ख़ान के गुजरने के 12 साल बाद इस लोक से विदा हुए। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तभी 2001 में बिस्मिल्लाह ख़ान को भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। खुद अटल बिहारी वाजपेयी को भी यह सम्मान 2015 में मिला, जब वे काफी बीमार थे और स्मरण शक्ति उनकी जवाब दे रही थी। दोनों भारत रत्न का एक-दूसरे से गहरा नाता रहा है। एक संगीत और साहित्य के प्रेमी रहे, तो दूसरे संगीत का पर्याय। एक राजनीति में रच-बस गये, तो दूसरे शहनाई में।
वाजपेयी राजनीति में मील का पत्थर बन चुके हैं, तो उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान संगीत में किवदंती। बिस्मिल्लाह ख़ान को भारत रत्न भले ही 2001 में दिया गया था लेकिन इसकी पृष्ठभूमि 1996 में ही तैयार हो गयी थी. एक समारोह में अटल बिहारी वाजपेयी ने सात विभूतियों को सम्मानित किया। उनमें बिस्मिल्लाह ख़ान, किशन महाराज, ज्योतिन जतिन भट्टाचार्य, सितारा देवी, गिरिजा देवी, महामहोपाध्याय मुसलगांवकर और राजेश्वर आचार्य शामिल थे। उसी समारोह के दौरान वाजपेयी ने अपने मन की बात कह दी थी।
अटल ने बिस्मिल्लाह ख़ान को भारत का रत्न बताया था, तो किशन महाराज को भारत का भूषण। 2001 में जब वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो बिस्मिल्लाह ख़ान भारत रत्न और किशन महाराज को पद्मविभूषण का सम्मान मिला। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान ने शहनाई के सुर से बनारस के लोक सुर को शास्त्रीय संगीत में पिरो दिया। उनके सुरों की लहरियां बनारस में गंगा की सीढ़ियों, मंदिरों से होती हुईं देश की राजधानी दिल्ली और फिर सरहदों को पार करती हुईं दुनिया में अमर हो गयीं।
चाहे आज़ादी के वक्त लालकिले पर शहनाई की गूंज हो या पहले गणतंत्र के मौके पर बजायी गयी धुन, देश और दुनिया जिस संगीत की दीवानी हो गयी, वह तान शहनाई बिस्मिल्लाह ख़ान की ही थी। तब से बिस्मिल्लाह राष्ट्रीय कार्यक्रमों का अभिन्न हिस्सा बन गये। तिरंगा फहराने के बाद प्रधानमंत्री का भाषण और फिर उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान का शहनाई वादन, हिन्दुस्तान के लिए यह एक आदत-सी बन गयी थी।
1997 में जब देश आज़ादी के 50 साल मना रहा था तो उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान फिर याद किए गये। इस मौके पर उन्होंने यादगार शहनाई बजाई। शहनाई बिस्मिल्लाह ख़ान की बेगम थीं। उन्होंने अपनी शहनाई का यही परिचय रखा था। 21 मार्च 1916 को जन्मे बिस्मिल्लाह ख़ान के परिवार में संगीत का वातावरण था। उनके पिता पैगम्बर बख्श ख़ान उर्फ बचई मियां राजाभोजपुर के दरबार में शहनाई बजाया करते थे जबकि मामू अलीबख्श साहब बनारस के बालाजी मंदिर में शहनाई बजाते थे।
अपने मामू के हाथ से ही उस्ताद ने शहनाई थामी थी और ताउम्र इसे थामे रहे। शहनाई ने बिस्मिल्लाह को दुनिया का सितारा बना दिया, मगर दौलत से दूरी बनी रही। सही मायने में संगीत का राजा फकीरी का जीवन जीता रहा, मगर उसे कभी इसका इल्म भी न हुआ। हां, जब कभी भी मान में कमी आती, तो बिस्मिल्लाह रो पड़ते थे। उनके आंसू देखने की ताकत हिन्दुस्तान में कभी रही नहीं। लिहाज़ा हुक्मरान भी दौड़े चाले आते थे। बिस्मिल्लाह को बस और कुछ नहीं चाहिए था। चाहिए था तो सिर्फ मान।