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CBI डायरेक्टर रहे आलोक वर्मा के सनसनीखेज़ 100 दिन : हार कर भी जीती मोदी सरकार

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आधी रात का ड्रामा, 77 दिन का जबरन अवकाश, 36 घंटे के लिए पद पर बहाली और आखिरी 21 दिन के लिए डीजी फायर सर्विस के पद पर ट्रांसफर- ये है सीबीआई के पूर्व बल्कि अपूर्व डायरेक्टर कहें, उनके 100 दिन।

100 दिन में सीबीआई ने विश्वास खोया, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने विश्वास खोया। नुकसान सिर्फ व्यक्ति के रूप में आलोक वर्मा या नरेंद्र मोदी का नहीं हुआ है, नुकसान हुआ है लोकतंत्र का, लोकतांत्रिक ढांचे का।

बात ताजा घटना से शुरू करें। सेलेक्ट कमेटी ने बैठक की। प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता इसके सदस्य होते हैं। मुख्य न्यायाधीश ने खुद बैठक में शिरकत नहीं की, अपने प्रतिनिधि के तौर पर जस्टिस एके सीकरी को भेजा।

36 घंटे पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को सीबीआई डायरेक्टर के पद से हटाने के फैसले को गलत ठहराया था, उन्हें उनके पद पर वापस बिठाया। ऐसा इसलिए क्योंकि फैसला वैधानिक रूप से सेलेक्ट कमेटी में नहीं हुआ था। मगर, 36 घंटे बाद वही सुप्रीम कोर्ट सेलेक्ट कमेटी का हिस्सा बनकर आलोक वर्मा को उनके पद से वैधानिक तरीके से हटाती हुई भी नज़र आयी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जस्टिस एके सीकरी ने आलोक वर्मा को सीबीआई डायरेक्टर के पद पर नहीं रखने और उनका तबादला करने का फैसला सुनाया, जबकि सेलेक्ट कमेटी के तीसरे सदस्य ने उनसे अलग राय रखी।

सूत्रों के हवाले से जो मीडिया में ख़बर हैं अगर उसकी बात करें तो सेलेक्ट कमेटी ने कई टिप्पणियां की हैं, उनमें शामिल हैं

सेलेक्ट कमेटी ने जो कहा

“अत्यधिक संवेदनशील संगठन के प्रमुख के तौर पर श्री वर्मा उस गरिमा के साथ काम नहीं कर रहे थे जैसी कि उनसे अपेक्षा थी”

“IRCTC मामले में सीवीसी ने महसूस किया कि यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि श्री वर्मा ने जानबूझकर एफआईआर से एक नाम हटाया जिसकी वजह वही जान सकते हैं।“

ख़बर है कि सेलेक्ट कमेटी ने माना है कि विस्तृत जांच की आवश्यकता है। इसमें कुछ मामलों में आपराधिक जांच भी शामिल है। इसलिए वर्मा को सीबीआई प्रमुख के तौर पर जारी नहीं रखा जा सकता और उनका तबादला किया जाना चाहिए।

अब अगर सीवीसी की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो उसकी रिपोर्ट कहती है कि आलोक वर्मा के ख़िलाफ़ ‘घूस लेने के प्रमाण नहीं मिले, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के सत्यापन के लिए आगे जांच की आवश्यकता’ है-

इस आरोप पर कि “कुछ खुफिया इनपुट पर कार्रवाई नहीं की जा रही” सीवीसी की रिपोर्ट में कहा गया है, “आरोप सिद्ध नहीं हुआ”

“हरियाणा में जमीन अधिग्रहण मामले की आरम्भिक जांच में 36 करोड़ की रिश्वत” के आरोप पर रिपोर्ट में कहा गया है- “आरोप सिद्ध नहीं, आगे जांच की आवश्यकता”

IRCTC मामले की एफआईआर में एक अभियुक्त को बाहर करने के आरोप पर रिपोर्ट में कहा गया है, “आरोप सिद्ध और गम्भीर अनियमितता, अनुशासन व अन्य कार्रवाई की जरूरत”

दिल्ली पुलिस कमिश्नर रहते हुए सोने की तस्करी करने वाले एक शख्स को बाइज्जत स्कॉर्ट कराने का आरोप। दिल्ली एयरपोर्ट पर सोने की तस्करी के मामले में कार्रवाई में असफलता के आरोप पर रिपोर्ट में कहा गया है- आंशिक रूप से आरोप सिद्ध

वर्मा के ख़िलाफ़ 10 आरोपों में तीन सिद्ध हुए, जबकि 6 सिद्ध नहीं हो सके। यहां तक कि जो आरोप सिद्ध हुए हैं उन्हें भी विश्वसनीयता के स्तर पर कसा जा सकता है।

खड़गे के ‘Dissent Note’ की मुख्य बातें

सेलेक्ट कमेटी में विपक्ष के नेता के रूप में मौजूद मल्लिकार्जुन खड़गे ने असहमति का नोट दिया है। इसका मतलब ये है कि वे बहुमत की राय से सहमत नहीं हैं। खड़गे का कहना है कि CVC के निष्कर्ष पर नतीजे निकालने के बजाए खुद CVC  के निष्कर्ष की जांच की जरूरत है। लेकिन साथ ही साथ उनके कार्यकाल को पूरा करने से रोका नहीं जाना चाहिए और उन्हें उनका पावर भी वापस मिलना चाहिए। श्री खड़गे ने यहा तक सिफारिश की कि अतिरिक्त 77 दिन के कार्यकाल का विस्तार मिलना चाहिए जितने दिन वे जबरन छुट्टी पर भेजे गये।

कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने 23-24 अक्टूबर की रात की घटनाओं की जांच की भी मांग की है। आधी रात के सरकारी आदेश में आलोक वर्मा को छुट्टी पर जाने को कहा गया था। इससे सीबीआई डायरेक्टर को हटाने के लिए सरकार के षडयंत्र का खुलासा होता है। कांग्रेस नेता का आरोप है कि राफेल जेट डील में जांच की कोशिश से श्री वर्मा ने सरकार को परेशान कर दिया था।

पूरे मामले में यह बात उल्लेखनीय है कि सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर के रूप में नम्बर दो की जगह राकेश अस्थाना की तैनाती का सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा ने विरोध किया था। मगर, केंद्र सरकार ने उनकी एक नहीं सुनी। राकेश अस्थाना की तैनाती इस तथ्य के बावजूद हुई कि उनके ख़िलाफ़ सीबीआई की जांच चल रही थी। सवाल ये है कि जो सरकार सीबीआई की गरिमा बचाने के लिए आलोक वर्मा को उनके पद से इस आधार पर हटा रही है कि उनके खिलाफ जांच चल रही है। उसी सरकार ने एक ऐसे अधिकारी को सीबीआई का स्पेशल डायरेक्टर कैसे नियुक्त कर दिया जिसके खिलाफ पहले से जांच चल रही थी। सवाल और भी हैं, मगर सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या 31 जनवरी 2019 को रिटायर होने तक आलोक वर्मा को उनके पद पर बने रहने नहीं दिया जा सकता था?

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