कारोबार से दूर रहे सरकार, मगर कैसे?
Business is not a business of the Governement. जिसका राजा व्यापारी, उसकी जनता भिखारी। नितिन गडकरी ने यह बात द क्विन्ट के कार्यक्रम बोल: लव योर भाषा में शिरकत करते हुए कही है। लोकतंत्र में राजा का मतलब प्रधानमंत्री और उनकी पूरी कैबिनेट होता है। इस लिहाज से गडकरी के बयान का मतलब ये हुआ कि नीति निर्माताओं को कारोबार से दूर रहना चाहिए। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? कारोबार से दूर रहने का मतलब क्या है?
चाहे वर्तमान मोदी सरकार हो या पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार- इन सरकारों में बड़ी संख्या में ऐसे मंत्री रहे हैं जिनकी पृष्ठभूमि बिजनेसमैन की यानी कारोबारी की रही है। नितिन गडकरी जैसे लोग भी रहे हैं जो उद्योपति होने के बावजूद सरकार में रहते हुए पूरी तरह से अपने आपको अपने बिजनेस से अलग रखने का दावा करते हैं।
राजनीति में पदार्पण करने वाले प्रशान्त किशोर ने भी यही घोषणा की है कि वे प्रोफेशनल ज़िन्दगी को परे रखते हुए जेडीयू में सक्रिय होने जा रहे हैं। हालांकि उनकी कम्पनी बिना उनकी सलाह के ही स्वतंत्र रूप से काम करती रहेगी।
चाहे नितिन गडकरी हों या प्रशान्त किशोर- इनकी तारीफ की जानी चाहिए कि इन्होंने सार्वजनिक जीवन और पेशेवर जीवन को अलग-अलग देखने की हिम्मत दिखलायी है। मगर, सच्चाई यह भी है कि एक कम्पनी से महज इन्होंने दूरी बनायी है, उससे अलग नहीं हुए हैं।
मान लिया जाए कि नितिन गडकरी की कम्पनी ई-रिक्शा बेचती है। ऐसे में ई-रिक्शा को लेकर बनाए जाने वाले नियम-कानून से नितिन गडकरी अगर जुड़े हैं तो उनकी कम्पनी इस फैसले से खुद को अलग कैसे कर सकती है? यह भी तय है कि आने वाले समय में जब वे मंत्री नहीं होंगे तो दोबारा अपने बिजनेस से जुड़ेंगे। ऐसे में सरकार की कारोबार से दूरी वाली गडकरी की बात व्यावहारिक कहां रह जाती है। वह तो सवालों में आ जाती है।
इसी तरीके से जब प्रशान्त किशोर अपनी कम्पनी के नफे-नुकसान से दूर नहीं होंगे, तो केवल कामकाज से अलग रहते हुए वे कैसे दावा कर सकते हैं कि उन्होंने प्रोफेशनल ज़िन्दगी को स्थगित कर राजनीतिक जीवन को स्वीकार किया है। उल्टे राजनीति में सक्रिय रहते हुए वे अपनी कम्पनी को काम दिलाने से लेकर काम कराने तक में भूमिका निभाएंगे, इसकी आशंका ज्यादा रहेगी।
एक उदाहरण कांग्रेस नेता कमलनाथ का भी है जिनके परिवार के पास 23 कम्पनियां हैं। वे खुद भी कई कम्पनियों के प्रमुख रहे हैं। सरकार का हिस्सा भी रह चुके हैं कमलनाथ। देस के 5 सबसे रईस नेताओं में उनकी गिनती होती है। कमलनाथ का उदाहरण कारोबार और सरकार से अलग नहीं है। लगभग हर राजनीतिक पार्टियों में आपको ऐसे ही नाम मिल जाएंगे।
महात्मा गांधी ने एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को विघटित कर देने की बात कही थी। उन्होंने नयी पार्टी का नाम भी सुझा दिया था लोक सेवक संघ। उनका मकसद भी साफ था कि कांग्रेस का जन्म जिस राजनीतिक उद्देश्य के लिए हुआ था, वह पूरा हो चुका है। अब आज़ादी के बाद के राजनीतिक मकसद के लिए स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि से अलग होकर राजनीतिक दलों का निर्माण किया जाना चाहिए ताकि लोकतंत्र मजबूत हो। लेकिन राजनीतिक कारोबार की पृष्ठभूमि से अलग होना कांग्रेस को मंजूर नहीं हुआ क्योंकि इस पर अमल करने से राजनीतिक नेतृत्व को नुकसान हो सकता था।
ऐसी ही बातें ऑल असम स्टूडेन्ट्स यूनियन और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा जैसे संगठनों के लिए भी की जा सकती है जिन्होंने अलग प्रांत का लक्ष्य हासिल कर लेने के बाद भी राजनीति के लिए इसी पृष्ठभूमि का इस्तेमाल किया।
अगर सरकार को कारोबार से दूर रहना है तो मंत्रियों को भी कारोबार से दूर रहना होगा। राजनीति को अगर कारोबार के प्रभाव से बचाना है तो नेताओं को भी कारोबार और राजनीति में एक को चुनना होगा। दो नावों की सवारी नहीं होती। ऐसा नहीं होगा कि नेता राजनीति करें और रिश्तेदार कारोबार या फिर मंत्री होकर कारोबार से दूर रहें और जब मंत्री पद चला जाए तो दोबारा कारोबारी बन जाएं। कारोबार से दूर रहते हुए सरकार का हिस्सा बनना या फिर राजनीति करना बहुत बड़ा त्याग है क्या देश के नेता इसके लिए तैयार होंगे?