अध्यादेश पर औवैसी के कुतर्कः तीन तलाक़ अब अपराध
Wrong Play on Ordinance. It is Asaduddin Obaisy who is playing darely and wrong. But How he is wrong. अध्यादेश के जरिए केन्द्र सरकार ने ट्रिपल तलाक को अलविदा कर दिया है। इसके साथ ही नये सिरे से ट्रिपल तलाक पर बने कानून को लेकर बहस छिड़ गयी है। असदुद्दीन ओवैसी ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड समेत सभी संगठनों से इसे चुनौती देने की अपील की है। आखिर जिस ट्रिपल तलाक से मुक्ति को 21वीं सदी का सबसे बड़ा फैसला माना जा रहा है, उसे लेकर ओवैसी जैसे मुस्लिम नेताओं में बेचैनी क्यों है। और, क्या ये सही है उसे भी परखना जरूरी है।
असदुद्दीन ओवैसी ने ट्रिपल तलाक पर अध्यादेश का विरोध करते हुए चार प्रमुख बातें कही हैं-
- मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ है अध्यादेश, नहीं मिलेगा महिलाओं को इंसाफ़
- विवाह सामाजिक अनुबंध, दंड का प्रावधान गलत
- अध्यादेश असंवैधानिक क्योंकि केवल मुसलमानों के लिए है अध्यादेश, समानता के अधिकार का उल्लंघन
- शादीशुदा होकर पत्नी से दूर रहने वालों के लिए भी बने कानून
ओवैसी के ये चार तर्क चीख-चीख कर कह रहे हैं- हाजमोला सर। ट्रिपल तलाक महिलाओं ज़ोर-जुल्म का औजार बना रहा, हलाला जैसी कुप्रथाएं पनपीं। कभी ओवैसीजी को इस जोर-ज़ुल्म के विरोध में प्रतिक्रिया देते नहीं सुना गया। अब ट्रिपल तलाक रोकने के कानून में मीन-मेख निकालने में जुटे हैं।
महिलाओं को इंसाफ नहीं मिलेगा, ये हो सकता है लेकिन इस क़ानून से ज़ोर-जुल्म ज़रूर मिटेगा। इंसाफ तो उन महिलाओं को भी नहीं मिलता, जिन्हें दहेज के लिए जला दिया जाता है। एक ओर शरीर का ज़ख्म होता है और दूसरी ओर उसके परिजन जेल की चक्की पीस रहे होते हैं। इसलिए कानून से इंसाफ की उम्मीद न की जाए, उससे अपनी उम्मीद ज़ोर-जुल्म करने वालों को हथकड़ी पहनाने तक ही सीमित रखें। यही बेहतर होगा।
विवाह जैसे सामाजिक अनुबंध में दंड के प्रावधान को गलत बता रहे हैं ओवैसी। यही सामाजिक अनुबंध जब टूटता है, महिला विवाहेतर संबंध बना लेती हैं तो क्या बताएंगे ओवैसीजी कि शरीयत के हिसाब से दंड का प्रावधान होता है या नहीं?
ओवैसी का यह तर्क भी अजीबोगरीब है कि यह अध्यादेश केवल मुसलमानों के लिए है। जब ट्रिपल तलाक मुसलमानों में प्रचलित है तो इसे गैर मुसलमानों पर लागू करने का तरीका भी वह बता दें। दूसरी बात ये है कि गुजाराभत्ता देने का प्रावधान जो राजीव गांधी की सरकार ने लागू किया था वह भी केवल मुसलमानों पर ही लागू होता है। कभी ओवैसीजी ने उसका विरोध क्यों नहीं किया?
असदुद्दीन ओवैसी ने समानता के अधिकार के उल्लंघन का सवाल भी इसी आधार पर उठाया है कि यह केवल मुसलमानों पर ही लागू होता है। बड़ा अच्छा मौका उन्होंने उन लोगों को दिया है जो धार्मिक आधार पर भेदभाव को ख़त्म करने की आवाज़ उठाते रहे हैं। ट्रिपल तलाक रोकने का कानून बन जाए, तो वह समानता के अधिकार का उल्लंघन है। मगर, शाहबानों मामले में गुजाराभत्ता देने का अदालती आदेश सरकार खुद वहन करने लगे, इसके लिए अध्यादेश लाए तो वह समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं। ऐसा क्यों?
ओवैसी ने बात पते की जरूर कही है कि शादीशुदा होकर भी पत्नी से दूर रहने वालों के लिए भी कानून बनना चाहिए। उनका कहना है कि देश में ऐसे लोगों की संख्या 24 लाख है। हालांकि ये गिनती वे सिर्फ गिना रहे हैं उनका इशारा तो बस एक के लिए कानून बनाने का है और वो हैं नरेन्द्र मोदी। ओवैसी की चिन्ता जायज है मगर समय ऐसा है मानो वो बदले की भावना से बोल रहे हों।
आप कह सकते हैं कि नीयत देखनी हो तो सिर्फ ओवैसी का न देखिए, दूसरों की भी देखिए। बिल्कुल। बदनीयती की पहचान हमें करनी होगी। दूसरे को बदनीयत बताकर अपनी नीयत भी ख़राब कर ली जाए तो इसका समर्थन भी नहीं किया जा सकता। कहने का मतलब ये है कि दिल की आवाज़ बोलना आसान नहीं है, यह एक आदत होती है जो आज के नेताओं ने कभी डाली ही नहीं।