आरक्षण : SC-ST को बनाया जा रहा है बेवक़ूफ़!
सुप्रीम कोर्ट में संविधान पीठ इस बात पर सुनवाई कर रही है कि एससी-एसटी के लिए प्रमोशन में आरक्षण होना चाहिए या नहीं। 2006 से यह इसलिए रुका हुआ है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रमोशन में आरक्षण तभी दिया जा सकता है जब डेटा के आधार पर राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करें कि एससी-एसटी का प्रतिनिधित्व कम है और प्रशासन की मजबूती के लिए ऐसा करना जरूरी है।
न राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई काम किया, और न ही प्रमोशन में आरक्षण को शुरू किया जा सका। नतीजा ये है कि एससी-एसटी वर्ग आरक्षण के प्रावधानों के बावजूद उसके लाभ से वंचित है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि एंट्री लेवल पर रिजर्वेशन कोई समस्या नहीं है। पर, अदालत का सवाल ये है कि आरक्षण से राज्य के मुख्य सचिव बन चुके व्यक्ति के परिवार को पदोन्नति में आरक्षण के लिए योग्य मानना क्या सही होगा?
जबसे मंडल कमीशन लागू हुआ है दो चीजें लगातार देखने को मिली हैं- एक जो आरक्षण के प्रभाव को कम करती है और दूसरा, जो आरक्षण का लाभ पाने के लिए जातियों और वर्गों में होड़ पैदा करती हैं। क्रीमी लेयर का बनना, प्रमोशन में आरक्षण जैसी चीजें आरक्षण का प्रभाव कम करती हैं। वहीं, गरीबों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण, जाट और गुर्जरों का आंदोलन, राजस्थान और तमिलनाडु में सीमा से अधिक आरक्षण जैसी बातें आरक्षण के लाभ में हिस्सेदारी की बढ़ती ललक को दिखाती हैं।
ऐसा हुआ क्यों? ऐसा हो क्यों रहा है? हिन्दुस्तान में आरक्षण की सोच का जन्म ही सामाजिक रूप से अछूत वर्ग के लिए हुआ था ताकि उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाया जा सके। यह सोच अंग्रेजों के जमाने में पैदा हुई। मगर, जब 1953 में कालेलकर आयोग को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान करने और उनके लिए संस्तुति की जिम्मेदारी दी गयी, तो ओबीसी का कॉन्सेप्ट आ गया। मगर, देश ने तब इसे स्वीकार नहीं किया।
सामाजिक पिछड़ेपन में शैक्षिक पिछड़ेपन को जोड़ देने से एससी-एसटी को आरक्षण की जरूरत ही डाइल्यूट हो गयी। मंडल कमीशन ने जब एससी-एसटी के लिए 27.5 फीसदी आरक्षण को बरकरार रखते हुए ओबीसी के लिए 22 फीसदी आरक्षण की सिफारिश कर दी, तो आरक्षण का फायदा लेने वाला एक नया वर्ग सामने आ गया। यह वर्ग खुद अछूत नहीं था, बल्कि अछूत वर्ग के लिए शोषक जातियों में शुमार था। इस वर्ग का चरित्र सवर्णों के समान था।
फर्क था तो बस आर्थिक आधार का। आर्थिक आधार पर ओबीसी वर्ग में भी मजबूत लोग थे जिनकी पहचान क्रीमी लेयर के रूप में करने की कोशिश की गयी। इसी सोच के साथ यह सोच भी परवान चढ़ी कि सवर्णों में भी आर्थिक आधार पर पिछड़ों की भी पहचान होनी चाहिए।
पीवी नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री रहते आर्थिक आधार पर अगड़ों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की घोषणा कर दी गयी। आरक्षण का सामाजिक आधार गौण हो गया। शैक्षिक और आर्थिक आधार महत्वपूर्ण होते चले गये। या यों कहें कि इन रूपों में आरक्षण के दावेदार बढ़ गये। सबसे ज्यादा नुकसान एससी-एसटी वर्ग को हुआ। अब एससी-एसटी वर्ग से प्रमोशन में आरक्षण पर सवाल पूछे जा रहे हैं।
यहां भी क्रीमी लेयर खोजने की बात उठ रही है। जबकि ये सवाल सामाजिक आधार पर आरक्षण के दायरे में नहीं आते। कहने का मतलब ये है कि अब आरक्षण पर बात हो तो दो तरीके से हों- एससी-एसटी के लिए अलग और बाकी के लिए अलग। तभी आरक्षण सिद्धांत के मूल आधार यानी सामाजिक आधार को बचाये रखा जा सकेगा।
घालमेल चाहे न्यायपालिका के स्तर पर हो या कार्यपालिका के स्तर पर, इससे आरक्षण के मकसद को ही चोट पहुंचेगी। सच ये है कि आरक्षण सामाजिक भेदभाव मिटाने के लिए, समाज की मुख्य धारा से एससी-एसटी वर्ग को जोड़ने के लिए एक तदर्थ व्यवस्था रही है। इसका आधार बदल कर इसे दूसरे समुदायों में लागू कर और इसके स्वभाव को स्थायी बनाकर दरअसल भेदभाव को ही मजबूत किया जा रहा है। इस बात को समय रहते सबको समझना होगा।