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2019 की जंगः सिख दंगा बनाम गुजरात दंगा – राहुल बनाम मोदी?

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प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फ़िल्म राजनीति का डायलॉग है “राजनीति में मुर्दे कभी गाड़े नहीं जाते…उन्हें जिंदा रखा जाता है…ताकि वक्त आने पर वो बोल सके..” ये वक्त होता है चुनाव का। जब-जब चुनाव आते हैं मुर्दे बन चुके मुद्दे ज़िन्दा हो जाते हैं। लीजिए आ गया चुनाव और बोलने लगे मुर्दे क्या कभी दफन हो पाएंगे सन् 84 और 2002 के दंगे सिख दंगे पर क्यों बोलें राहुल, गुजरात दंगे पर क्या बोलें मोदी?

दो महत्वपूर्ण मुद्दे हैं- एक 1984 का सिख विरोधी दंगा और दूसरा 2002 का गोधरा कांड की प्रतिक्रिया में गुजरात में हुआ दंगा। 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की 31 अक्टूबर को हुई हत्या के बाद उनकी पहली जयंती पर उसी साल 19 नवम्बर को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपनी माता को जिस रूप में याद किया था, उसकी याद भी बारम्बार दिलायी जाती है…

राजीव गांधी अपनी मां इन्दिरा के विशाल व्यक्तित्व को याद कर रहे थे मगर ऐसा करते हुए उन्होंने जिस प्रतीक शैली का इस्तेमाल किया, उससे भावनाएं आहत होने का भी ख़तरा था। हुआ भी वही। राजनीतिक विरोधियों ने उनके बयान को सिखों के प्रति असहिष्णुता के रूप में पेश किया। मगर, अब खुद राजीव गांधी की भी हत्या हो चुकी है लेकिन बारम्बार उस बयान की याद दिलायी जाती है।

नरसिम्हाराव से लेकर मनमोहन सिहं और सोनिया गांधी तक से जवाब मांगे गये और अब राहुल गांधी से जवाब मांगे जा रहे हैं। राहुल गांधी लंदन में हैं और देश तोड़ने का इरादा रखने वाले खालिस्तान समर्थक वहां उपद्रव फैला रहे हैं। इसी पृष्ठभूमि में लंदन के बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञ राहुल से सिख विरोधी दंगे में कांग्रेस की भूमिका पर सवाल पूछ रहे हैं।

राहुल गांधी ने जवाब में दोहराया है कि सिख विरोधी दंगे में कांग्रेस की कभी कोई भूमिका नहीं रही। राहुल का जवाब औपचारिक है। सच ये है कि प्रधानमंत्री के तौर पर डॉ मनमोहन सिंह संसद में इस मुद्दे पर देश से माफी मांग चुके हैं। ऐसे में अब राहुल गांधी के पास सिख विरोधी दंगे पर नया क्या बोलने को रह जाता है। खासकर तब जबकि घटना के वक्त राहुल महज 13 साल के थे और 34 साल बाद आज 47 साल की उम्र में कांग्रेस सम्भाल रहे हैं।

चाहे सिख विरोधी दंगा हो या गुजरात दंगा- इन्हें हर चुनाव के वक्त उठाया जाता है। कांग्रेस और बीजेपी शासन को इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार बताया जाता है। इसमें शक नहीं कि अगर शासन-प्रशासन चुस्त-दुरुस्त हो तो सांप्रदायिक घटनाएं नहीं हो सकतीं। इन दंगों में राजीव गांधी और नरेंद्र मोदी की सरकारों की भूमिकाओं पर अदालत से लेकर अदालत से बाहर तक पर्याप्त चर्चाएं होती रही हैं।

दोषियों को सज़ा दिलाने के मामले में या फिर असल गुनहगार तक पहुंच पाने में सरकार की विफलता पर वाजिब चिन्ता भी जतायी जाती रही है। मगर, सवाल ये है कि बारम्बार इन सवालों को चुनाव का मुद्दा बनाया जाना क्या जरूरी है?

राजनीति में ऐसे मुद्दों को क्यों नहीं मुर्दे की तरह गाड़ दिया जाए जो अक्सर नफ़रत फैलाने वाले बोल बनकर सामने आ जाते हैं। क्यों नहीं राजनीति ऐसे मुद्दों पर चले जिसका संदेश एकजुटता हो, भाईचारा हो, एकता और सामाजिक सद्भावना हो। ऐसा तभी हो सकता है जब आम लोग भी ऐसी कोशिशों को खारिज करना शुरू करे जो उनमें नफ़रत फैलाते हैं।

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