रॉबर्ट वाड्रा केस : हिन्दुस्तान में कोई भ्रष्ट नहीं
रॉबर्ट वाड्रा चर्चा में हैं। नये सिरे से एक एफआईआर ने उन्हें मुश्किल में डाल दिया है। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा का नाम भी इस एफआईआर में है। दोनों पर जालसाजी कर ज़मीन खरीदने-बेचने और ज़मीन का उपयोग बदलने के लिए सत्ता का इस्तेमाल करने के आरोप हैं। ये आरोप नये नहीं हैं। मगर, परिस्थितियां नयी हैं। सामने आम चुनाव है।
क्या है वाड्रा पर आरोप
- 2007 में महज 1 लाख की पूंजी से रॉबर्ड वाड्रा ने स्काईलाइट हॉस्पिटैलिटी शुरू की
- 2008 में गुरुग्राम के सेक्टर 83 के शिकोहपुर में 3.5 एकड़ जमीन खरीदी।
- 7.5 करोड़ का भुगतान ओंकरेश्वर प्रॉपर्टीज़ को किया।
- जून 2008 में वाणिज्यिक कॉलोनी लाइसेंस के साथ 2.7 एकड़ ज़मीन डीएलएफ को 58 करोड़ रुपये में बेच दी गयी
- कॉमर्शियल कैम्पस विकसित करने के लिए डीएलएफ से वाड्रा की कंपनी ने 5 अगस्त 2008 को करार किया
- कॉमर्शियल कॉलोनी का लाइसेंस दिसम्बर 2008 में मिल गया जिसका नवीनीकरण जनवरी 2011 में हो गया।
खट्टर सरकार ने 14 मई 2015 में न्यायमूर्ति एसएन ढींगरा आयोग का गठन किया जिन्होंने अगस्त 2016 में 182 पेज की रिपोर्ट खट्टर सरकार को सौंपी। ढींगरा आयोग का कहना था कि भूमि सौदे से 50.5 करोड़ रुपये के गैरकानूनी मुनाफा कमाए गये। ये मुनाफे बिना किसी पैसे खर्च किए कमाए गये। सितम्बर 2018 एफआईआर दर्ज करायी गयी।
पब्लिक डोमेन पर अब कांग्रेस से जवाब मांगा जा रहा है। वाड्रा के गुनाह का जवाब। मगर, कांग्रेस का कहना है कि रॉबर्ट वाड्रा ने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया। किसी को व्यक्तिगत या कम्पनी के तौर पर नुकसान नहीं पहुंचाया। ऐसे में रॉबर्ट वाड्रा को गुनहगार नहीं ठहराया जा सकता।
खुद रॉबर्ट वाड्रा का भी यही कहना है कि 2019 चुनाव को देखते हुए यह मुद्दा उठाया जा रहा है जिसका मकसद चुनाव में फायदा लेना है। इसी मुद्दे को 2014 लोकसभा चुनाव और 2015 में हरियाणा विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी भुना चुकी है। भारतीय राजनीति का यही स्वाद है। यहां काठ की हांडी भी बार-बार चढ़ती है। गुजरात का दंगा, अयोध्या केस, 1984 में सिख विरोधी दंगा, रॉबर्ट वाड्रा केस हर मुद्दा बार-बार चुनावी बनता है।
जिन पर आरोप लगता है वह कभी आरोपों पर सीधा जवाब नहीं देते। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। यह सच्चाई है कि अकाउऩ्ट में महज 1 लाख रुपये रखकर करोड़ों की डील कर ली गयी। ज़मीन के उपयोग को सत्ता की मदद से बदलवा कर उससे 50 करोड़ से ज्यादा के मुनाफे कमाए गये। यह सब करने के लिए रॉबर्ट वाड्रा की कम्पनी को कुछ करना नहीं पड़ा।
राहुल गांधी ऐसे ही आरोप तो राफेल डील में भी अनिल अम्बानी पर लगा रहे हैं। सत्ता का दुरुपयोग कर एक ऐसी कम्पनी को डील दे दी गयी जिसके पास कोई अनुभव नहीं था। डील के वक्त अपना दफ्तर तक नहीं था। इसके अलावा डील में लेन-देन पर भी राहुल सवाल उठा रहे हैं। बीजेपी सरकार और खुद अनिल अम्बानी इस मामले में कह रहे हैं कि कोई गैर कानूनी काम नहीं हुआ।
चाहे रॉबर्ट वाड्रा का मामला हो या राफेल डील का। या फिर चाहे अमित शाह के बेटे की सम्पत्ति का जादुई तरीके से बढ़ जाने का ही मामला क्यों न हो- इन सभी मामलों में कोई खुद को गुनहगार नहीं मानता। उनका तर्क यही होता है कि उन्होंने कानून का कोई उल्लंघन नहीं किया। वाकई जब कानून बनाने वाली और उसका पालन करने-कराने वाली सरकार ही साथ में हो, तो सही और गलत में फर्क मुश्किल हो जाता है। भ्रष्टाचार ज़िन्दा ही इसलिए है क्योंकि इसे सत्ता का समर्थन मिला हुआ है।
बिना सत्ता के समर्थन के भ्रष्टाचार फल-फूल नहीं सकता। यह बात बीजेपी भी कहती है मगर तब जब उसे कांग्रेसी नेताओं के भ्रष्टाचार पर राजनीति की रोटियां सेंकनी होती है। यही बात कांग्रेस भी कहती है मगर तब जब उसे बीजेपी नेताओं के भ्रष्टाचार पर यही काम करना होता है। रॉबर्ट वाड्रा केस भी इसी सच्चाई पर मुहर है।