5 राज्यों में Election Result : हार हुई क्योंकि गांवों में है गुस्सा
क्यों हारी बीजेपी? अपने घर में हार? माना कि राजस्थान में कभी होती आयी है जीत तो कभी हार। पर, छत्तीसगढ़ में क्यों? मध्यप्रदेश में क्यों? ये तो बीजेपी के गढ़ रहे थे?
बीजेपी के प्रवक्तागण कह रहे हैं 15 साल की एंटी इनकम्बेन्सी थी, फिर भी बहुत पीछे नहीं रहे। यह ईमानदार विश्लेषण और स्वीकारोक्ति नहीं है। गुजरात के चुनाव में किसी तरह सत्ता बच गयी थी, तब भी इस सवाल का किसी ने जवाब नहीं दिया था।
एंटी इनकम्बेन्सी है केंद्र के ख़िलाफ़
छत्तीसगढ़ में एंटी इनकम्बेन्सी बहुत कम मानी जा रही थी मगर उम्मीद से परे वहां बीजेपी छठा हिस्सा बनकर रह गयी। अगर राज्य सरकारों के ख़िलाफ़ एंटी इनकम्बेन्सी होती, तो नतीजा बाकी राज्यों में छत्तीसगढ़ से भी बुरा होता। सच ये है कि एंटी इनकम्बेन्सी राज्य सरकारों के ख़िलाफ़ नहीं थी, केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ है। सच ये भी है कि केंद्र से नाराज़गी का नतीजा ही राज्य सरकारों को भुगतना पड़ा।
ग्रामीण भारत नाराज़ है। गुजरात में भी यह दिखा था जब 182 विधानसभा सीटों वाले प्रदेश के ग्रामीण इलाकों की 122 सीटों में से बीजेपी को 51 सीटें ही मिल सकी थी। बीजेपी के मुकाबले इन्हीं ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस को 71 सीटें मिली थीं।
बीजेपी मध्यप्रदेश में 2018 में केवल 43 फीसदी ग्रामीण सीटें ही जीत सकी है। राजस्थान में 34 फीसदी और छत्तीसगढ़ में ग्रामीण इलाकों की 15 फीसदी सीटें बीजेपी जीत पायी। एक बुरे सपने की तरह आए हैं ये नतीजे।
MP में BJP को 56 सीटों का नुकसान
मध्यप्रदेश में बीजेपी को जिन 56 सीटों का नुकसान हुआ है उनमें ग्वालियर-चम्बल और मालवा-निमाड़ की 40 सीटें हैं। ये सभी सीटें ग्रामीण इलाकों की हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि बीजेपी ने जो सीटें गवाईं हैं उनमें से ज्यादातर यानी 40 में 38 सीटें कांग्रेस ने अपने नाम कर ली है।
3 राज्यों में 48% सीटें हार गयी BJP
वर्ष कुल सीटें BJP
2013 520 377
2018 520 198
अगर तीनों राज्यों को जोड़कर देखें तो बीजेपी 2013 में जीती हुई सीटों में से 48 फीसदी सीटें हार गयीं। 2013 में बीजेपी ने मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की 520 सीटों में से 377 सीटें जीती थीं। इस बार वह 198 सीटें ही जीत सकी। कुल मिलाकर बीजेपी को 180 सीटों का नुकसान हुआ। गौर करने वाली बात यही रही कि हारी हुई ज्यादातर सीटें ग्रामीण इलाकों की हैं।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या बीजेपी ग्रामीण इलाकों में अपने लिए नाराज़गी की बात को स्वीकार करेगी? जिस तरीके से गुजरात के बाद भी बीजेपी ने सबक नहीं लिया और इस ट्रेंड को मजबूत होने छोड़ दिया गया, उससे ऐसा ही लगता है कि सत्ता में रहते हुए सही-गलत परखने की क्षमता कम हो जाती है। बीजेपी भी इसी दौर से गुजर रही है।
वर्ष कुल सीटें BJP
2014 342 178
2009 342 066
अगर ग्रामीण क्षेत्रों में गुस्सा जारी रहता है तो क्या बीजेपी लोकसभा चुनाव में 2014 का प्रदर्शन दोहरा पाएगी? ऐसा हो ही नहीं सकता। 2014 में बीजेपी ने 342 ग्रामीण इलाकों की सीटों में 178 पर जीत हासिल की थी। यह चमत्कार था। क्योंकि, पिछले चुनाव में यानी 2009 में बीजेपी ग्रामीण इलाकों की महज 66 सीटें ही जीत सकी थी।
अगर BJP की 48% सीटों पर हार का ट्रेंड जारी रहा
वर्ष वर्तमान ग्रामीण सीटें सम्भावित सीटें
2019 178 86
अगर ग्रामीण इलाकों में 48 फीसदी सीटें हारने का ट्रेंड जारी रहा, तो बीजेपी 178 में से 86 सीटें ही जीत सकेगी। अगर, ऐसा हुआ, तो बीजेपी की टैली 200 से भी कम पर चली आएगी।
एक बात और भी चौंकाती है कि एक तरफ पीएम नरेंद्र मोदी का दावा है कि ‘काम बोलता है’, लोकलुभावन घोषणाओं में भी कोई कमी नहीं है और न ही बीजेपी के राज में महंगाई बेकाबू हुई है जैसा कि मनमोहन सरकार में हुई थी…फिर क्यों ग्रामीण इलाकों में इतनी नाराज़गी है?
इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट इस सवाल का जवाब देती है-
“2014-15 के बाद से कृषि और गैर कृषि व्यवसायों से ग्रामीण वेतन वृद्धि में कमी आयी है जिसमें औसतन 5.2 प्रतिशत की वार्षिक बढ़ोतरी सामान्य तौर पर हुआ करती थी।”
किसानों की नाराज़गी का असल कारण यही है। आमदनी नहीं बढ़ रही है। मनमोहन सरकार में महंगाई बढ़ रही थी, तो आमदनी भी बढ़ रही थी। इसलिए ऐसी नाराज़गी तब नहीं देखी गयी। मगर, अब महंगाई स्थिर रहने के बावजूद आमदनी नहीं बढ़ने से मुश्किलें बढ़ गयी हैं।
ग्रामीण इलाकों की इस एक परेशानी को अगर बीजेपी ने पहचान लिया, तो उसे 2019 में कोई रोक नहीं सकता। वहीं, अगर इसकी अनदेखी की गयी, तो जो हाल मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का हुआ है, जो हाल छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और राजस्थान में वसुंधरा राजे का हुआ है, उसी हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी नज़र आएंगे।