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NDA में बिखराव, BJP की 3 बड़ी भूल

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नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस यानी एनडीए का बिखरना बीजेपी के लिए ख़तरे की घंटी है। बीजेपी को अपने दम पर आज बहुमत ज़रूर है मगर एनडीए के बगैर क्या वह इस बहुमत को बनाए रख सकती है, यह बड़ा सवाल है। सच तो ये है कि इस सवाल का ‘हां’ में जवाब देने का जोखिम भी बीजेपी उठा नहीं सकती। वहीं, बीजेपी को सत्ता तभी मिली है जब उसने एनडीए बनाया या फिर उसे मजबूत किया। जब-जब एनडीए कमज़ोर हुआ, बीजेपी सत्ता से बाहर हो गयी।

ताज़ा तरीन जो पार्टी एनडीए से अलग हुई है, वह है राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, जिसके प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा हैं। इस कड़ी में कुछ और सहयोगी दल जुड़ने को बेकरार दिख रहे हैं जिसे अपने साथ बनाए रखने की चुनौती एनडीए प्रमुख अमित शाह की रहेगी। हम बात कर रहे हैं एनडीए की उन गलतियों की जो 2019 में इसका नेतृत्व कर रही बीजेपी पर भारी पड़ सकती हैं। ये गलतियां तीन हैं-

पहली गलती

शिवसेना को नहीं मना पाना

सैद्धांतिक तौर पर शिवसेना से अधिक बीजेपी से नजदीक दूसरी कोई पार्टी नहीं है। तालमेल ऐसा है कि जब उग्र हिन्दुत्व पर सॉफ्ट होना पड़ता है तो वह भूमिका शिवसेना निभाने लगती है। मगर, ताज्जुब है कि शिवसेना लगातार नाराज़ होती रही, मगर बीजेपी उसे मना नहीं सकी। एक तरफ एसपी-बीएसपी एक हो रहे हैं, खुद बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बनाकर राजनीतिक मतभेदों से ऊपर सत्ता का स्वार्थ होता है यह बात साबित कर दी। मगर, अपने निकटतम सहयोगी शिवसेना के साथ सौतेला व्यवहार करती रही। इसका असर खुद एनडीए के दूसरे सहयोगी दलों में बहुत बुरा पड़ा है जिसका अंदाजा शायद एनडीए प्रमुख अमित शाह को नहीं है।

दूसरी गलती

तेलुगू देशम पार्टी को एनडीए से बाहर होने देना

तेलुगू देशम पार्टी वह पार्टी है जिसने 1999 में बाहर से समर्थन देकर एनडीए की सरकार बनायी थी। तेलुगू देशम वह पार्टी है जिसके प्रमुख एन चंद्र बाबू नायडू हाल तक एनडीए का नेतृत्व करते रहे थे। न सिर्फ चंद्र बाबू नायडू ने एनडीए का साथ छोड़ा है बल्कि वे राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी विरोधी मोर्चे की सम्भावना तलाशने वाले शीर्ष नेताओं में एक हैं। यह एनडीए को दोहरा नुकसान है। इसका आकलन अभी बीजेपी नहीं कर पा रही है।

तीसरी गलती

राष्ट्रीय लोक समता पार्टी सरीखी पार्टियों को महत्व नहीं देना

राष्ट्रीय लोक समता पार्टी नेता उपेन्द्र कुशवाहा एनडीए से अलग हो गये। लगातार बीजेपी विरोधी बयान वे देते रहे, मगर कभी उन्हें मनाने की कोशिश नहीं की गयी। आखिरकार न सिर्फ उन्होंने एनडीए छोड़ दिया है बल्कि वे बिहार में महागठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं। बीजेपी नेता इन्हें साढ़े चार साल सत्ता में रहकर मलाई खाने के बाद मौका आने पर धोखा देने वाला बता रहे हैं। मगर, यही एक तरफा सोच एनडीए के लिए आत्मघाती है। सत्ता में एनडीए का हर घटक है। मलाई सभी खा रहे हैं। कोई छोड़कर जा रहा है, तो क्यों? क्योंकि, यही दल कभी आकर जुड़ रहे थे तो एनडीए को तीन चौथाई बहुमत मिला। बीजेपी के रुख से एनडीए के भीतर बाकी घटक दलों में भी बेचैनी होना स्वाभाविक है। एनडीए में उत्तर प्रदेश के छोटे घटक दल इस बेचैनी का खुला इजहार कर रहे हैं।

यह सम्भव है लोक जनशक्ति पार्टी नेता राम विलास पासवान लोकसभा सीटों के लिए बीजेपी से बारगेन करें। इसे राजनीतिक अधिकार माना जाना चाहिए। मगर, बीजेपी का व्यवहार ऐसा है जिससे लोजपा के रूठने की सम्भावना ज्यादा और उन्हें मनाने की कोशिश कम दिखती है। सवाल ये है कि एनडीए के सहयोगी दलों में असंतोष क्या केवल स्वार्थ के कारण पैदा हो रहा है? क्या एनडीए केवल स्वार्थी दलों का गठबंधन है? अगर बीजेपी ऐसा सोचती है तो यह सोच खुद उसके लिए नकारात्मक और आत्मघाती है।

BJP के लिए जादू का नाम है NDA

बीजेपी आज ज़रूर अपने दम पर बहुमत रखती है, मगर इस बहुमत के पीछे के जादू का नाम है एनडीए। वही एनडीए जिसके नहीं बनने पर 1996 में बीजेपी महज 13 दिन की सरकार चला सकी थी। वही एनडीए जिसके बन जाने पर 1998 में बीजेपी ने 13 महीने सरकार का नेतृत्व किया, तब 14 सहयोगी दलों में एक अन्नाद्रमुक के छोड़ जाने से सरकार गिर गयी थी। वही एनडीए जिसने देश को 1999 में पहली बार 5 साल के लिए गैर कांग्रेस सरकार दी। तब एनडीए का कुनबा बढ़कर 17 हो चुका था। वही एनडीए, जिसने 2014 में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी सरकार के लिए तीन चौथाई बहुमत लेकर आया। तब एनडीए के सहयोगी दलों की तादाद हो चुकी थी 44.

एनडीए ने पहले भी गलतियां की हैं। 2004 का आम चुनाव किसे याद नहीं है। इंडिया शाइनिंग में खुद बीजेपी डूबी हुई थी। इस कदर डूबी हुई थी कि डीएमके की नाराज़गी समझने और उसे दूर करने का वक्त बीजेपी नेतृत्व के पास नहीं था। महज उस एक गलती ने चुनाव बाद गठबंधन की सम्भावना को भी खारिज कर दिया। तब से डीएमके एनडीए से ऐसा छिटका कि वह आज तक यूपीए के साथ बना हुआ है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को खुलकर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने वाले देश के पहले बड़े गैर कांग्रेसी नेता स्टालिन भी आज उसी डीएमके का नेतृत्व कर रहे हैं।

TDP का छोड़ना पड़ेगा महंगा?

एक बार फिर 2019 आते-आते एनडीए में बिखराव दिख रहा है। वहीं बिखराव को समेटने की कोशिश नहीं दिख रही है, यह बीजेपी के लिए अधिक ख़तरनाक है। 2004 में डीएमके के मुकाबले 2019 में टीडीपी है जो एनडीए से दूर जा चुकी है। एनडीए के प्रमुख रहे शरद यादव के छिटकने को भी नज़रअंदाज नहीं करें। ये वही शरद यादव हैं जिन्होंने 70 के दशक में छात्र नेता रहते हुए तमाम गैर कांग्रेसी दलों के संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर दिग्गज कांग्रेसी नेता शंकर दयाल शर्मा को हराया था और बिहार में लोकप्रियता के झंडे गाड़ चुके लालू प्रसाद को। ये नेता ऐसे हैं जो कुनबे को समेट कर रखने का माद्दा रखते हैं। सवाल यही है कि क्या बीजेपी अपने सहयोगी दलों को नहीं मना पाने की अक्षमता को सुधारेगी? या फिर बीजेपी की तीन बड़ी गलतियां 2019 में उस पर बहुत भारी पड़ने वाली हैं।

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