Article 35A कश्मीर का एक और बवाल
डॉ मनमोहन सिंह पूर्व प्रधानमंत्री हैं और पाकिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थी भी। अगर वे जम्मू-कश्मीर में बसे होते, तो देश के प्रधानमंत्री कभी नहीं बन सकते थे। वे मुखिया और विधायक तक नहीं बन सकते थे। यही हाल लालकृष्ण आडवाणी का भी है। कश्मीर में बसने पर उनके लिए भी देश का डिप्टी पीएम बनना सम्भव नहीं होता।
ये लोग राज्य सरकार की नौकरी भी नहीं कर सकते थे और न ही ज़मीन-जायदाद रख सकते थे। क्यों? क्योंकि वहां अनुच्छेद 35ए लागू है। जी हां, जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35 ए पर बवाल इसीलिए है। इस अनुच्छेद ने जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को नागरिकता तय करने का अधिकार दे रखा है।
अगर इस अधिकार का इस्तेमाल करने में जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने सहृदयता दिखलायी होती, तो यह अनुच्छेद समस्या नहीं वरदान साबित होती। आप पूछेंगे कैसे? यही हम आपको बताने जा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर सरकार ने सन् 1947 में पाकिस्तान से आए करीब 6 हज़ार हिन्दू शरणार्थियों को नागरिकता देने की जरूत नहीं समझी।
ऐसे हजारों परिवार अब भी जम्मू-कश्मीर में हैं जिनके पास न पाकिस्तान लौटने का विकल्प है और न ही कश्मीर ने उन्हें स्वीकारा है। ये लोग लोकसभा चुनाव में मतदान तो कर सकते हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर में मुखिया भी नहीं चुन सकते। इसलिए बड़ी संख्या में पाकिस्तान से आए हिन्दुओं ने शेष हिन्दुस्तान में बिखर जाना उचित समझा। जम्मू-कश्मीर की सरकार का यह अल्पसंख्यक विरोधी चेहरा रहा है। यहां बड़ी संख्या में गोरखे भी हैं जो बिना नागरिक सुविधा के यहां नारकीय जीवन जीने को विवश हैं।
वोटबैंक ने कांग्रेस, एनसी, पीडीपी और बीजेपी सबको मजबूर किए रखा है। किसी की हिम्मत 35ए के दुरुपयोग पर बोलने की नहीं हुई। यहां तक कि राष्ट्रपति शासन में भी राज्यपाल एसएन वोरा ने सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 35ए पर सुनवाई रोकने का आग्रह भेज रखा है। अनुच्छेद 35ए का एकतरफा इस्तेमाल गैर मुस्लिमों के लिए हुआ।
मगर, अब जबकि अदालत में इसे चुनौती दी गयी है तो स्थानीय राजनीतिक दल अनुच्छेद 35ए को हटाने का अंजाम भुगतने की धमकी दे रहे हैं। ये आशंका जता रहे हैं कि ऐसा करने का मकसद जम्मू-कश्मीर की डेमोग्रैफी को बदलना है। जम्मू-कश्मीर में बाहर से लोगों को बसाने का मकसद है जिसे वे कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे।
अजीब बात है जो अनहोनी हुई नहीं, उसकी आशंका तो जताई जा रही है लेकिन जो अनहोनी हो चुकी है उस पर सभी खामोश हैं। 1961 में जम्मू-कश्मीर की कुल आबादी 35.6 लाख थी जिनमें मुसलमानों की आबादी 24 लाख 32 हज़ार थी, हिन्दुओं की 10 लाख 13 हज़ार। यानी मुस्लिम 68.31 प्रतिशत थे, हिन्दू 28.45 प्रतिशत।
2011 में जम्मू-कश्मीर की आबादी 1 करोड़ 25 लाख 41 हज़ार थी जिनमें मुसलमान 85.67 लाख थे यानी 68.31 प्रतिशत, जबकि हिन्दुओँ की संख्या रह गयी 35 लाख 66 हजार जो प्रतिशत रूप में 28.43 फीसदी है। इस तरह जम्मू-कश्मीर की डेमोग्राफी लगभग स्थिर बनी हुई है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि कश्मीर घाटी से बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों को 80 के दशक में खदेड़ दिया गया।
हालांकि इस कारण कश्मीर घाटी के भीतर मुसलमान 95 फीसदी से ज्यादा हो चुके हैं और हिन्दुओं की आबादी 4 फीसदी तक सिमट गयी है। जम्मू-कश्मीर में 22 जिले हैं जिनमें 17 मुस्लिम बहुल हैं। इनमें 10 कश्मीर में, एक लद्दाख में और 6 जम्मू में हैं। हिन्दुओं का बहुमत 4 ज़िलों में है और ये सभी जम्मू सम्भाग में हैं। लेह में बौद्ध बहुमत में हैं।
कश्मीर घाटी की डेमोग्राफी में आए बदलाव पर किसी राजनीतिक दल को चिन्ता नहीं हुई। यही भेदभावपूर्ण नज़रिया है। अनुच्छेद 35ए हटाना इसलिए जरूरी नहीं है कि यह प्रदेश की डेमोग्राफी में बदलाव लाए, बल्कि इसलिए जरूरी है कि जम्मू-कश्मीर की सरकारों के अल्पसंख्यक विरोधी रवैये को बेलगाम न छोड़ा जाए।
1954 में पंजाब से बुलाकर 200 वाल्मीकि परिवारों को जम्मू-कश्मीर में बसाया गया था। मगर, बदले में उन्हें क्या मिला? उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ सकते, पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकते और तमाम नागरिक सुविधाओं से महरूम हैं क्योंकि जम्मू-कश्मीर की नागरिकता उन्हें नहीं दी गयी।
यह बात क्यों बर्दाश्त की जाए कि पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को जम्मू-कश्मीर सरकार नागरिकता नहीं देगी क्योंकि क्योंकि वे हिन्दू हैं मगर यही सरकार रोहिंग्या मुसलमानों को अपने सूबे में पनाह देगी क्योंकि वह मुसलमान हैं? ये अनुच्छेद 35 एक का विकृत चेहरा है। रोहिंग्या मुसलमानों को बसाने की कोशिश भी कश्मीर घाटी में नहीं हो रही है, बल्कि जम्मू में हो रही है जहां सूबे के अधिकांश हिन्दू रहते हैं। क्या इसका मकसद वहां की डेमोग्राफी को बदलना नहीं है?
क्यों इस बुरी मंशा पर वही राजनीतिक दल खामोश हैं जिन्हें जम्मू-कश्मीर की डेमोग्राफी की चिन्ता है? अनुच्छेद 35 ए भारतीय संविधान के परिशिष्ट यानी अपेन्डिक्स में जोड़ा गया है। इसलिए इसकी संवैधानिकता ऐसे भी संदिग्ध है। नागरिकता जैसे प्रावधान से जुड़ा यह अनुच्छेद बिना भारतीय संसद की सहमति से जोड़ा गया है, इसलिए भी इस पर विचार करना जरूरी है। मूल बात ये है कि अगर कोई व्यक्ति भारत का नागरिक है और जम्मू-कश्मीर में पीढ़ियों से रह रहा है तो उसे उसके मूलभूत अधिकारों से कैसे अलग किया जा सकता है?