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गरीब सवर्णों को 10% आरक्षण चुनावी झुनझुना

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सवर्ण गरीबों को आरक्षण

10 फीसदी आरक्षण

अलग से बनेगा कोटा

मौजूदा 49.5 फीसदी पर आंच नहीं

मोदी कैबिनेट ने 7 जनवरी को सवर्णों के साथ 7 फेरे लेने का फैसला किया है। मगर, अभी महज मंगनी हुई है, शादी अभी बाकी है। क्या सवर्ण मोदी सरकार के साथ जुड़ पाएंगे? क्या सवर्णों का गुस्सा ठंडा हो जाएगा? मध्यप्रदेश और राजस्थान में जो गुस्सा सवर्णों ने दिखाया था, क्या वह 2019 के आम चुनाव में अब नहीं दिखेगा? इन सवालों पर सबकी नज़र है।

चूकि सवर्णों के लिए घोषित आरक्षण से किसी और वर्ग को नुकसान नहीं है, लिहाजा कोई विरोध इस मामले में नहीं दिख रहा है। मगर, सवाल जरूर उठ रहे हैं, सरकार की मंशा पर भी और इस आरक्षण को लागू करने के तरीके पर भी। इन सवालों पर गौर करें

  • क्या संसद के दोनों सदनों में बिल पास करा पाएगी मोदी सरकार?
  • अगर बिल पास हो गया, तो क्या अदालत में टिक पाएगा यह आरक्षण?
  • सरकार की मंशा आरक्षण देना है या चुनाव में सवर्णों का समर्थन लेना?
  • क्या सरकार ने आपने मास्टर स्ट्रोक से ‘राफेल हमले’ को फेल कर दिया है?

सवर्णों को आरक्षण मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है तो इसके कारण स्पष्ट हैं कि उन्होंने तो अपनी चाल चल दी है। अगर विरोधी इसके आड़े आ गये, तो कोपभाजन उन्हें ही बनना होगा और वोट मांगते समय बीजेपी खुद को सवर्णों का हितैषी बताने में पीछे नहीं रहेगी।

मगर, यह बात भी स्पष्ट है कि सवर्ण आंख मूंदकर मोदी के मास्टरस्ट्रोक को स्वीकार कर लेंगे, ऐसा नहीं है। वास्तव में गरीब सवर्णों को आरक्षण होगा या नहीं, इसे भी तर्क की कसौटी पर कसा जाने लगा है। गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण का दांव तो नरसिम्हाराव सरकार ने भी खेला था, मगर सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा था-

SC नकार चुका है आरक्षण में आर्थिक आधार

  • आरक्षण का आर्थिक आधार संविधान सम्मत नहीं
  • आमदनी और संपत्ति आरक्षण का आधार नहीं हो सकता
  • आरक्षण समूह को दिया जाता है, व्यक्ति को नहीं
  • आर्थिक आधार पर आरक्षण समानता के अधिकार का उल्लंघन

आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की कोशिश राजस्थान में भी हुई और गुजरात में भी, लेकिन वे सारे प्रयास अदालत में बेकार साबित हुए। ऐसे में मोदी सरकार का वर्तमान प्रयास सफल होगा, यह कैसे माना जा सकता है।

मोदी सरकार के पास हथियार है संविधान संशोधन। मगर, ध्यान देने वाली बात ये है कि संविधान संशोधन आरक्षण के प्रतिशत को लेकर हो सकता है, आरक्षण के आधार को बदलकर नहीं क्योंकि तब संविधान की बुनियादी संरचना में बदलाव का सवाल उठ खड़ा होगा। वर्तमान 49.5 फीसदी के आरक्षण को बढ़ाकर 59.5 फीसदी किया जाए, इस पर संविधान संशोधन हो सकता है। हालांकि 50 फीसदी के दायरे को तोड़ने पर इसकी भी न्यायिक समीक्षा तय है।

संविधान में आरक्षण का आधार शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ापन है। वास्तव में यह जातिगत नहीं है। किसी एक जाति पर यह लागू तब होता है जब पूरी जाति को शैक्षिक और सामाजिक आधार पर दूसरी जातियों की तुलना में पिछड़ा साबित कर दिया जाए। यही कारण है कि कोई जाति एक प्रदेश में पिछड़ी होती है तो किसी और प्रदेश में पिछड़ी नहीं होती है।

सवर्णों के गरीबों को आरक्षण तभी मिल सकता है जब

सवर्ण गरीबों को मिल सकता है आरक्षण बशर्ते…

  • सवर्णों के पिछड़े तबके की पहचान हो, जिसका आधार आमदनी, ज़मीन, मकान नहीं हो सकता
  • यह पिछड़ा तबका शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा माना जाए
  • राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग इसकी पहचान करे

केंद्र सरकार की नीयत अगर साफ होती तो सवर्णों के पिछड़े वर्ग को इन्हीं आधारों पर चिन्हित किए जाने की कोशिश की जाती। मगर, ऐसी कोई तैयारी नहीं दिखी।

सवर्णों को आरक्षण के मूल में वोट पॉलिटिक्स है। मगर, ऐसा नहीं है कि वोट पॉलिटिक्स सिर्फ बीजेपी ही कर रही है। बीजेपी अगर एक वर्ग को लुभा रही है, तो दूसरी पार्टियां भी उस वर्ग की नाराज़गी मोल लेना नहीं चाहती। लिहाजा ज्यादार विपक्षी पार्टियां बीजेपी की इस पहल का विरोध नहीं कर पा रही हैं लेकिन राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियां अपने वोटबैंक को सुरक्षित रखने के लिए इसका विरोध कर रही हैं। यह भी वोट पॉलिटिक्स ही है। लाख टके का सवाल ये है कि आरक्षण की जो व्यवस्था दलितों, पिछ़ड़ों और आदिवासियों का भला नहीं कर पायी, क्या वह सवर्णों का कर पाएगी?

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