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जॉर्ज फर्नांडीज : नहीं रहा गैरकांग्रेसवाद की राजनीति का स्तम्भ

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जॉर्ज – द जायन्ट किलर के रूप में मशहूर रहे जॉर्ज फर्नांडीज। ट्रेड यूनियन नेता और राजनेता के तौर पर जुझारू और संघर्षशील तेवर के साथ देश की सियासत में जॉर्ज का दखल रहा। महज 19 साल की उम्र में ट्रेड यूनियन आंदोलन से जुड़े जॉर्ज देखते-देखते तत्कालीन बम्बई में मजदूरों के मसीहा बन गये। बीएमसी की सियासत से लेकर संसद तक का सफर उन्होंने मुम्बई से ही शुरू किया।

जॉर्ज द जायन्ट किलर

राष्ट्रीय राजनीति में पैर रखते हुए वे 1969 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव और फिर 1973 में पार्टी प्रमुख बन गये। 1974 में जॉर्ज के नेतृत्व में हुआ 19 दिनों का देशव्यापी रेल आंदोलन अंतरराष्ट्रीय इतिहास के बड़े आंदोलनों में माना जाता है।{GFX OUT} इस आंदोलन के साल भर बाद ही 25 जून 1975 को तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने देश पर आपातकाल थोप दिया था। जॉर्ज ने आपातकाल का जबरदस्त विरोध किया। भूमिगत रहकर वे सरकार विरोधी आंदोलन को संगठित करते रहे।

बड़ौदा डायनामाइट केस में उन्हें 10 जून 1976 को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर इंदिरा गांधी की वाराणसी की सभा में मंच उड़ाने की साजिश का आरोप लगाया गया। जेल में रहते हुए ही जॉर्ज फर्नांडीज़ ने बिहार के मुजफ्फरपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और 3 लाख के रिकॉर्ड वोट से चुनाव जीते।

जनता सरकार में वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री बने जॉर्ज ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ख़िलाफ़ अपने तेवर को बनाए रखा। उन्होंने कोकाकोला और आईबीएम जैसी कंपनियों पर भारतीय कानून मानने का ऐसा दबाव बनाया कि ये कंपनियां कारोबार समेटने को मजबूर हो गयीं। दूरदर्शन केंद्र भी जॉर्ज की ही देन है। मुजफ्फरपुर में कांटी थर्मल पावर स्टेशन और लिज्जत पापड़ फैक्ट्री की स्थापना भी उनकी ही पहल पर हुई। लिज्जत पापड़ महिला सशक्तिकरण का प्रयोग माना जाता है।

जनता सरकार में रहते हुए जॉर्ज फर्नांडीज़ ने दोहरी सदस्यता का मसला जोर-शोर से उठाया। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही व्यक्ति जनता पार्टी और सरकार में रहने के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य भी हो। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने दोहरी सदस्यता का त्याग करने से मना कर दिया। विश्वास मत के दौरान जॉर्ज ने दोहरी सदस्यता को गुनाह बताते हुए इन सब नेताओं को लताड़ा। अंतर्विरोध इतना गहरा हो गया कि जनता पार्टी की सरकार गिर गयी।

जब कांग्रेस दोबारा सत्ता मे लौटी, तो जॉर्ज ने अपने विरोधी तेवर को बचाए रखा। 1980 में वे मुजफ्फरपुर से फिर चुनकर संसद लौटे, लेकिन 1984 में वे बंगलौर उत्तर सीट से चुनाव हार गये। ज़ॉर्ज फर्नांडीज ने एक बार फिर राजीव सरकार में बोफोर्स कांड के बाद विपक्ष में मजबूत भूमिका निभाई। 1989 में वीपी सिंह सरकार में रेल मंत्री हुए। इस भूमिका में कोंकण रेलवे प्रॉजेक्ट के रूप में देश को उनकी देन कभी भुलायी नहीं जा सकती।

वीपी सरकार में आरक्षण आंदोलन के बाद जब जनता दल टुकड़े-टुकड़े हो रहा था, तब जॉर्ज फर्नांडीज़ जैसे नेता खुद को अकेले पा रहे थे। राष्ट्रीय जनता दल बना चुके लालू प्रसाद उन्हें टिकट देने में आनाकानी कर रहे थे। उनके समर्थकों का दावा था कि लालू नहीं चाहेंगे तो जॉर्ज बिहार में चुनाव नहीं जीत सकते। तब जॉर्ज की उन दिनों कही गयी वह बात कौन भुला सकता है-

“हम तब भी चुनाव जीता करते थे जब लालू प्रसाद हमारे लिए माइक पर चुनाव का प्रचार किया करते थे।”

जॉर्ज ने 1994 में अलग समता पार्टी बना ली। वे 13 दिन की वाजपेयी सरकार का हिस्सा भी रहे और फिर 1998 में 13 महीने की सरकार का भी। वाजपेयी सरकार में जॉर्ज रक्षा मंत्री रहे। पोखरण इसी दौर की उपलब्धि है। अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर 24 दलों को संगठित करने और एनडीए बनाने में भी जॉर्ज फर्नांडीज का बड़ा योगदान रहा। यह एनडीए सरकार पहली ऐसी गैर कांग्रेस सरकार रही जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया। इस सरकार में रक्षामंत्री रहते हुए जॉर्ज फर्नांडीज ने करगिल युद्ध में भारत को जीत दिलायी।

2003 में जॉर्ज ने जेडीयू में समता पार्टी का विलय कर लिया, मगर उसके बाद उनकी राजनीतिक स्थिति कमजोर होती चली गयी। जेडीयू नेता नीतीश कुमार ने वह काम कर दिखाया, जो लालू प्रसाद नहीं कर पाए थे। जॉर्ज को मुजफ्फरपुर से टिकट देने से मना कर दिया। बीमार जॉर्ज निर्दलीय लड़े, लेकिन जीत न सके। हालांकि बाद में राज्यसभा में चुनकर जाने में जेडीयू ने ही उनकी मदद की, मगर स्वाभिमानी जॉर्ज फर्नांडीज ने निर्दलीय ही राज्यसभा का पर्चा भरा था। वे निर्विरोध चुने गये। 4 अगस्त 2009 को उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता ली। 2015 तक जॉर्ज राज्यसभा के सदस्य रहे। मगर, संसद की सीढ़ियों पर यह उनका आखिरी सफर था। फिर वे ऐसे बिस्तर पर पड़े कि उठ नहीं पाए, उनका जनाजा ही उठा।

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