Sun. Dec 22nd, 2024

लालू से रूठे रघुवंश क्या लौटकर आएंगे?

रघुवंश बाबू बीमार हैं मगर बिहार की राजनीति में उनकी बोली इस वक्त सबसे ज्यादा है। लालू प्रसाद को लिखी रघुवंश बाबू की चिट्ठी और जवाब में जेल से लिखी गयी लालू प्रसाद की चिट्ठी ने आरजेडी ही नहीं, बीजेपी और जेडीयू में भी करंट पैदा पैदा कर दी है। जेडीयू रघुवंश प्रसाद सिंह के आरजेडी से इस्तीफे वाली चिटठी को आरजेडी के ताबूत में अंतिम कील बता रहा है तो बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की ओर से रघुवंश बाबू को बीजेपी में शामिल होने का न्योता दिया जा रहा है।

लालू के हनुमान’ कहे जाते हैं रघुवंश बाबू

रघुवंश प्रसाद सिंह को ‘लालू प्रसाद का हनुमान’ कहा जाता है। दोनों हम उम्र हैं। राजनीति में भी समकालीन हैं। जेपी आंदोलन से उपजे नेता हैं रघुवंश-लालू प्रसाद। कर्पूरी ठाकुर के शिष्य हैं दोनों नेता। लोकदल में रहते हुए पार्टी के अध्यक्ष रह चुके हैं तो दूसरे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष। सामाजिक न्याय के आंदोलन में रघुवंश प्रसाद सिंह और लालू प्रसाद हमेशा साथ रहे। प्रदेश की सियासत से लेकर राष्ट्रीय राजनीति तक में रघुवंश बाबू दूसरे लालू प्रसाद या फिर उनकी छाया के तौर पर देखे जाते रहे। ऐसा इस तथ्य के बावजूद संभव होता रहा कि वे दलित या पिछड़ी जाति से नहीं, सवर्ण जाति से हैं।

मनरेगा रघुवंशबाबू की सबसे बड़ी देन

वास्तव में रघुवंश प्रसाद सिंह को कभी उनकी जाति से पहचाना ही नहीं गया। वे सच्चे अर्थ में समाजवादी सिद्धांत को जीते रहने वाले नेता रहे। जीवन शैली, संवाद, व्यवहार और सोच में जमीन से जुड़े नेता के वे उदाहरण रहे हैं। उनकी समाजवादी सोच मनरेगा में झलक जाती है। जी हां, मनरेगा। केंद्रीय ग्रामीण मंत्री रहते हुए यूपीए सरकार में मनरेगा को देशभर में लागू करने का श्रेय रघुवंश बाबू को ही है। यह पूरी तरह से गरीबों को समर्पित रोजगार कार्यक्रम है जो संकट की घड़ी में न सिर्फ दबे-कुचले लोगों के लिए, बल्कि समूचे देश के लिए संबल बना है। मनरेगा को सोनिया गांधी की सोच बताया जाता है मगर वास्तव में इस सोच के पीछे रघुवंश बाबू ही रहे हैं। उन्होंने ही इसे लागू भी किया था। अब बीजेपी भी इस कार्यक्रम की तारीफ करती है।

जेडीयू को चिट्ठी लिखने के निहितार्थ

रघुवंश बाबू की एक और चिट्ठी सियासा जगत में घूम रही है। उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से तीन आग्रह किया है। एक आग्रह मनरेगा को खेती से जोड़ने का है ताकि किसानों की किस्मत बदल जाए। इसके तहत मुखिया से रोजगार मांगेंगे मजदूर और किसानों को मजदूर उपलब्ध कराएंगे मुखिया। आधी मजदूरी सरकार देगी और आधी देंगे किसान। दूसरा आग्रह वैशाली को दुनिया के पहले गणतंत्र की पहचान दिलाना। इसके लिए मुख्यमंत्री और राज्यपाल की ओर से बारी-बारी से 15 अगस्त और 26 जनवरी को वैशाली में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का समारोह आयोजित करने का आग्रह रघुवंश बाबू ने किया है। तीसरा आग्रह है भगवान बुद्ध का पवित्र भिक्षापात्र अफगानिस्तान से वैशाली लाना। भगवान बुद्ध ने इस भिक्षा पात्र को वैशाली के लोगों को सौंपा था।

रघुवंश बाबू की चिट्ठी में व्यक्त तीनों आग्रह आम लोगों की जरूरत और सामाजिक-आर्थिक व पर्यटकी नजरिए से महत्वपूर्ण हैं। मगर, आग्रह की टाइमिंग यह बताती है कि रघुवंश बाबू ने जेडीयू के खुले निमंत्रण को सैद्धांतिक आधार से जोड़ने की कोशिश की है। यह न तो जेडीयू के निमंत्रण को स्वीकारना है और न ही ठुकराना, बल्कि आरजेडी से बाहर एक सुगम सियासी राह तैयार करना है।

आरजेडी में बेचैन क्यों हुए रघुवंश

आखिर रघुवंश बाबू आरजेडी में बेचैन क्यों हो गये? उनकी बेचैनी बाहुबली नेता रामा सिंह को आरजेडी में बुलाए जाने की कोशिशों के बाद पैदा हुई। राम सिंह ने लोकसभा चुनाव में रघुवंश प्रसाद सिंह को हराया था। जब लोजपा ने रामा सिंह को 2019 के आम चुनाव में टिकट नहीं दिया, तो अब वे आरजेडी का दरवाजा खटखटा रहे हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह ने रामा सिंह के खिलाफ पटना हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी कि जयचंद वैद्य अपहरण केस में गिरफ्तार रामा सिंह ने यह बात चुनाव आयोग को दिए गये शपथ पत्र में छिपायी। लिहाजा उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द की जानी चाहिए। रघुवंश बाबू और रामा सिंह की ये अदावत जगजाहिर है। फिर भी ऐसे मुद्दों पर समझौते की गुंजाइश खत्म नहीं होती।

असल राम सिंह को आरजेडी में लाने की कोशिश पार्टी में रघुवंश प्रसाद सिंह की अहमियत कम होने का प्रतीक हैं। इस मुद्दे पर रघुवंश बाबू आरजेडी के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा भी दे चुके हैं। सबसे अधिक बुरा उन्हें तब लगा जब तेज प्रताप ने कह डाला कि आरजेडी सागर है तो रघुवंश बाबू उसमें से लोटाभर पानी। तेज प्रताप ने अगले दिन रघुवंश प्रसाद सिंह को अभिभावक बताकर क्षतिपूर्ति का प्रयास भी किया, मगर रघुवंश बाबू का दर्द बढ़ता ही चला गया।

लालू ने पूरे अख्तियार से रघुवंश को रोका

लालू प्रसाद अब भी अपने हनुमान से जुदा होने को तैयार नहीं हैं। जवाबी चिट्ठी में लालू प्रसाद ने पूरे अख्तियार के साथ लिखा है कि ‘आप कहीं नहीं जा रहे हैं’। लालू जानते हैं कि रघुवंश प्रसाद अगर विरोधी खेमे में चले जाते हैं तो उनकी मारक क्षमता और बढ़ जाएगी और सबसे ज्यादा नुकसान उनकी आरजेडी को ही होगा। इस चिट्ठी के बाद रघुवंश प्रसाद सिंह के अपने फैसले पर पुनर्विचार की उम्मीद की जा सकती है मगर अपनी अहमियत दिखलाने का अवसर भी वे नहीं छोड़ रहे हैं।

बिहार में बीजेपी सवर्ण वोट बैंक और जेडीयू के साथ गठबंधन पर निर्भर है। ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ और वैश्य मिलाकर 24.2 प्रतिशत वोट बैंक हैं। अगर रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे राजपूत नेता बीजेपी में आ जाते हैं तो पार्टी आरजेडी के परंपरागत वोट बैंक में भी सेंध लगा सकती है। ऐसा होने पर लालू प्रसाद की उस रणनीति को भारी चोट पहुंचेगी जिसमें वे कभी जेडीयू के कद्दावर सवर्ण नेता रहे शिवानन्द तिवारी को ब्राह्मण के तौर पर, रघुवंश प्रसाद सिंह को राजपूत के तौर पर सवर्णों को साथ जुटाने की कोशिश कर रहे हैं।

सवर्ण नेता’ कहलाना चाहेंगे रघुवंश प्रसाद?

एक बात तय है कि रघुवंश बाबू जब तक आरजेडी में हैं तब तक वे सिर्फ सवर्ण नेता नहीं हैं, लेकिन आरजेडी से बाहर उन्हें कोई समाजवादी नेता के तौर पर स्वीकार करने नहीं जा रहा है। बल्कि उन्हें इसलिए स्वीकार किया जाएगा क्योंकि वे सवर्ण हैं और सवर्णों से जुड़ी रणनीति में गैर आरेजेडी पार्टी को फायदा पहुंचा सकते हैं। सवाल ये है कि क्या रघुवंश बाबू इसके लिए तैयार हैं? क्या वे लालू प्रसाद की बात नहीं मानेंगे? क्या वास्तव में हनुमान ने लालू प्रसाद का साथ छोड़ दिया है?