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राजस्थान : BJP को वोट की चोट?

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रेगिस्तान में वोटों की बारिश हुई है। अब नज़रें टिकी हैं कि फसल कौन काट पाता है। वसुंधरा राजे अपना खलिहान वोटों से भरा रखकर अपनी सरकार बचाती हैं या कि कांग्रेस का खलिहान लहलहाता दिखने वाला है। वैसे अब तक जो संकेत मिलते रहे हैं उसके मुताबिक पौने पांच करोड़ मतदाताओं का मूड बदलाव का है।

राजस्थान में बीएसपी उम्मीदवार के निधन के कारण एक सीट पर चुनाव रद्द हो चुका है। 200 के बजाए 199 सीटों पर वोट डाले गये हैं। बीजेपी सभी 199 सीटों पर चुनाव लड़ रही है जबकि कांग्रेस 194, एनसीपी 1, सीपीआई 16 और सीपीएम 28 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं।  गैर मान्यता प्राप्त दलों के 817 और निर्दलीय 830 उम्मीदवार भी चुनाव मैदान में हैं।

विगत चुनाव में महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा मतदान कर बीजेपी के लिए राज्य में कमल खिलाया था।

राजस्थान में हर सीट पर 36 हज़ार नये वोटर

वर्तमान चुनाव में तकरीबन हर विधानसभा सीट पर 36 हज़ार वोटों की बढ़ोतरी हुई है। ये वोट बहुत अहम हैं, बल्कि निर्णायक हैं।

राज्य में हर बार औसतन 20 फीसदी सीटें ऐसी होती हैं जहां हार जीत का फासला 5 प्रतिशत वोटों से कम पर होता है। ऐसी सीटों पर युवाओं के 36 हज़ार वोट तो निर्णायक होंगे ही बाकी सीटों पर भी ये वोट असर डालेंगी।

राजस्थान के चुनाव में बेरोज़गारी चुनावी मुद्दा बनी है। युवा वोटरों में निराशा है। अलवर में जिस तरीके से चार युवकों ने बेरोज़गारी के कारण ट्रेन के नीचे आकर जान दे दी, उसका संदेश युवाओं में वर्तमान सरकार को लेकर बहुत उल्टा पड़ा। मूल बात ये है कि ये बेरोज़गार साइलेंट वोटर हैं। अगर ये दुखी हैं, निराश हैं तो इसका खामियाजा बीजेपी को भुगतना ही पड़ेगा क्योंकि केन्द्र से लेकर राज्य तक में उसकी ही सरकार है।

वसुंधरा सरकार के ख़िलाफ़ एंटी इनकम्बेन्सी

वसुंधरा सरकार के लिए एंटी इनकम्बेन्सी के और भी मजबूत कारण रहे हैं। इनमें किसानों की नाराज़गी, राजपूतों और जाटों की नाराज़गी भी शामिल हैं। इसके अलावा पार्टी के भीतर भी भारी असंतोष दिखा है। बागी उम्मीदवार बड़ी संख्या में नज़र आए। इसका ख़ामियाज़ा भी बीजेपी को भुगतना पड़ रहा है।

विगत 25 साल से सरकार बदलने की जो परम्परा राजस्थान में है, वह भी वर्तमान वसुंधरा सरकार के विरुद्ध है। हालांकि बीजेपी इस परम्परा को तोड़ने का दावा जरूर कर रही है।

राजस्थान की कुछ अहम सीटों पर नज़र डालते हैं जो हाईप्रोफाइल हैं और मुकाबला भी कांटे का है

झालरापाटन : वसुंधरा बनाम मानवेंद्र

झालरापाटन की सीट वसुंधरा राजे के लिए अजेय दुर्ग रही हैं। वह यहां से लगातार 3 विधानसभा चुनाव जीत चुकी हैं। सांसद भी रही हैं। फिलहाल उनके बेटे दुष्यंत सिंह स्थानीय सांसद हैं। मध्यप्रदेश की सीमा से सटे इस इलाके ग्वालियर राजघराने के लिए सम्मान है।

वहीं वसुंधरा के ख़िलाफ़ खड़े कांग्रेस प्रत्याशी मानवेंद्र सिंह पूर्व केन्द्रीय मंत्री दिवंगत जसवंत सिंह के बेटे हैं। हाल में बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में आए। उन्हें राजपूत वोटों और एन्टी इनकम्बेन्सी का भरोसा है।

टोंक : सचिन पायलट बनम यूनुस ख़ान

प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और सीएम पद के लिए कांग्रेस के मजबूत दावेदार माने जा रहे सचिन पायलट पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें मुस्लिम, गुर्जर, एससी, एसटी वोट बैंक पर भरोसा है। वे फारूख अब्दुल्ला के रिश्तेदार हैं।

सचिन पायलट के मुकाबले मजबूत स्थानीय उम्मीदवार यूनुस ख़ान हैं जो बीजेपी की ओर से पूरे राजस्थान में इकलौते मुस्लिम प्रत्याशी हैं। वसुंधरा सरकार में कैबिनेट मंत्री यूनुस ख़ान को वसुंधरा का करीबी माना जाता है। सचिन पायलट के लिए वे कड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं।

सरदारपुरा : अशोक गहलोत VS शम्भू सिंह खेतासर

अशोक गहलोत सरदारपुरा से 3 बार विधानसभा चुनाव लड़ चुके हैं। यहीं से जीत कर दो बार वे मुख्यमंत्री बने हैं। छवि इतनी अच्छी है कि इन्हें मारवाड़ का गांधी भी कहा जाता है। इस बार भी मुख्यमंत्री के लिए कांग्रेस की ओर से मजबूत दावेदार हैं।

गहलोत को चुनौती दे रहे हैं शम्भू सिंह खेतासर। राजपूत नेता की छवि है। पहले भी गहलोत के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ चुके हैं। उन्हें ब्राह्मण, वैश्य और राजपूत वोटों का भरोसा है।

नाथद्वारा : डॉ सीपी जोशी VS महेश प्रताप सिंह

नाथद्वारा सीपी जोशी का गढ़ रहा है। मगर, उनके नाम यहां से महज 1 वोट से हारने का रिकॉर्ड भी है। 2008 में डॉ सीपी जोशी का मुख्यमंत्री बनना तय माना जा रहा था, मगर उनकी हार की वजह से मौका अशोक गहलोत को मिल गया। ब्राह्मण वोटों पर उन्हें भरोसा है। हाल में एससी-ओबीसी से जुड़े बीजेपी नेताओं के लिए उनका बयान उन्हें भारी पड़ सकता है।

महेश प्रताप सिंह कोठारिया रॉयल परिवार से ताल्लुक रखते हैं और राजपूतों में उनकी पैठ है। राजपूत कार्ड पर उन्हें भरोसा है।

उदयपुर : गुलाब चंद कटारिया VS गिरिजा व्यास

वसुंधरा सरकार में गृहमंत्री हैं गुलाब चंद कटारिया। शहर में उनका दबदबा है। लगातार यहां से चुनाव जीतते रहे हैं। जैन समुदाय का उनके साथ होना उनकी मजबूती है।

कटारिया के ख़िलाफ़ कांग्रेस ने पूर्व केन्द्रीय मंत्री और दिग्गज कांग्रेस नेता गिरिजा व्यास को चुनाव मैदान में उतारा है। मेवाड़ में कांग्रेस की ओर से गिरिजा व्यास मजबूत ब्राह्मण चेहरा हैं। उन्हें ब्राह्मण, एससी, एसटी, मुस्लिम वोटों का भरोसा है।

रैलियां करने में आगे रही कांग्रेस

जस्थान की जंग में जो बात बहुत अहम मानी जा रही है वो ये है कि कांग्रेस ने मेहनत करने में इस बार बीजेपी को पीछे छोड़ दिया है। तीन हफ्ते में राजस्थान में कुल 656 रैलियां हुईं। बीजेपी ने 223 रैलियां कीं, जबकि कांग्रेस ने 433. ये फर्क दोनों पार्टियों के चुनाव प्रचार में खुद को झोंक देने के स्तर को भी बयां कर रहा है।

नरेंद्र मोदी ने राजस्थान में 12 रैलियां कीं, जबकि अमित शाह ने 20 सभाएं कीं। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 75 रैलियां और रोड शो किए।

जवाब में कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी ने 9 रैलियां कीं। मगर, सचिन पायलट ने तो रिकॉर्ड ही बना डाला। उन्होंने 230 रैलियां कर डालीं। बुजुर्ग नेता अशोक गहलोत ने भी अकेले 100 रैलियां कीं।

राजस्थान से कांग्रेस से पैदा होगी लहर?

पांच राज्यों के चुनाव में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान का हिन्दी प्रदेश का दर्जा किंगमेकर का रहा है। 2019 में होने वाले आम चुनाव से पहले यह आखिरी चुनाव है। राजस्थान चुनाव नतीजे को इसलिए अहम माना जा रहा है। यहां हार और जीत का असर आम चुनाव पर पड़ता है। यही वो राज्य है जहां 2013 में जीतने के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने लोकसभा चुनाव राज्य की सभी 25 सीटें जीत ली थीं। क्या यही काम राजस्थान कांग्रेस के लिए करने वाला है? ये सवाल वर्तमान और भविष्य की राजनीति के ख्याल से लाख टके का सवाल है।

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