Rupee कमज़ोर या Dollar मजबूत?
Rupee कमजोर हो रहा है या Dollar मजबूत? दोनों ही स्थितियां अलग-अलग हैं और देश की अर्थव्यवस्था के अलग-अलग मायने बताती हैं। वर्तमान में क्या हो रहा है?
भारत की GDP का आकार ढाई हज़ार अरब डॉलर है और हम दुनिया में छठे नम्बर पर हैं। अगले 7 साल में यानी 2025 तक हमारी जीडीपी 5 हज़ार अरब डॉलर बना देने का दावा है वर्तमान मोदी सरकार का। लेकिन कैसे? डॉलर के मुकाबले रुपया अगर इसी तरह धड़ाम होता रहा, तो जीडीपी के विकास दर पर एक्सलेरेशन की उम्मीद पर यह ज़बरदस्त ब्रेक की तरह होगा। महज 9 महीने में 12 फीसदी रुपये का गिर जाना और आगे इस गिरने की रफ्तार का और तेज होने की आशंका एक नयी आशंका को जन्म देती है। और, वह आशंका है कि कहीं अर्थव्यवस्था की गाड़ी यू टर्न ना ले ले या फिर कहीं ये पलट ही ना जाए।
जी हां, रुपया गिर रहा है। मगर, 400 अरब डॉलर का मुद्रा भंडार लेकर भारतीय रिज़र्व बैंक बेबस है। अर्थशास्त्री भी दो हिस्सों में बंटे हैं। आम तौर पर ऐसा ही होता है। एक सरकार समर्थक अर्थशास्त्री और दूसरा सरकार विरोधी अर्थशास्त्री। माना ये भी जाता है कि सरकार अगर अर्थशास्त्री के हिसाब से चले, तो सबकुछ ठीक, जैसे कि मनमोहन सरकार। और, माना ये भी जाता है कि ऐसा होने पर सबकुछ बेकार। जैसे कि वही मनमोहन सरकार।
एक नज़रिया ये है कि रुपया नहीं गिर रहा है, डॉलर मजबूत हो रहा है। क्या मतलब है इसका? इसका मतलब ये है कि भारत में डॉलर की बढ़ती मांग की वजह से जो रुपया कमजोर होने की परम्परा रही है, वह परम्परा इस बार टूटी है।
डॉलर मजबूत हो रहा है क्योंकि दुनिया भर में डॉलर की मांग बढ़ रही है। दुनिया की कई अर्थव्यवस्थाएं धड़ाम हो रही हैं और डॉलर में कारोबार की मांग बढ़ती चली जा रही है। इस अंतरराष्ट्रीय स्थिति के कारण डॉलर मजबूत और उसकी बड़ी खरीददार भारतीय अर्थव्यवस्था की क्रयशक्ति यानी कि रुपया कमज़ोर हो रहा है।
तुर्की, इंडोनेशिया, अर्जेन्टीना जैसे देश डॉलर के सामने नतमस्तक हो चुके हैं। तुर्की की आधिकारिक मुद्रा लीरा एक साल में 50 फीसदी टूट चुकी है।
बड़े देशों की मुद्रा भी बहुत सुरक्षित नहीं दिख रही है। जैसे, 28 अगस्त से 12 सितम्बर तक की अवधि में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले यूरो की ताकत भी 3.17 फीसदी गिरी है। इसी तरह चीनी युआन जून, जुलाई और अगस्त के तीन महीनों में 8 फीसदी गिर गया।
मगर, इन विश्लेषणों से आम जनता को क्या मतलब। जनता को मतलब सिर्फ रुपये के कमजोर होने के परिणामों से है।
रुपया कमज़ोर होने से पेट्रोल-डीजल महंगा होता है, आयात महंगा होता है, विदेश में पढ़ने वाले बच्चों की फीस महंगी हो जाती है, विदेश यात्राएं महंगी होने लगती हैं। कुल मिलाकर महंगाई बढ़ जाती है।
भारतीय तेल कम्पनियां भी डॉलर की जमाखोरी करती है ताकि अधिक से अधिक मुनाफा कमाया जा सके। सरकार तेल को कमाई का जरिया बना चुकी है, वह मुनाफा छोड़ना नहीं चाहती। जब पेट्रोल-डीज़ल के भाव को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया गया था, तब यही तर्क था कि विश्व बाज़ार में दाम घटेंगे तो इसका फायदा सीधे उपभोक्ताओं को मिलेगा। मगर, इस वादे को भुला दिया गया।
मोदी सरकार में कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत 41 डॉलर प्रति बैरल के न्यूनतम स्तर तक आ चुकी थी। अब यह 70 डॉलर प्रति बैरल तक जा पहुंची है। पेट्रोल-डीजल़ महंगा होता तो जनता देख रही है लेकिन सस्ता होता जनता ने कभी महसूस नहीं किया। कर्नाटक चुनाव, गुजरात चुनाव के समय जरूर पेट्रोल-डीज़ल के दाम स्थिर रहे थे।
एक उदाहरण पर नज़र डालते हैं
वर्ष कच्चे तेल की कीमत दिल्ली में पेट्रोल के दाम
2012 109 डॉलर प्रति बैरल 73.18 रु/लीटर
2017 52.51 डॉलर प्रति बैरल 73.18 रु/लीटर
ये आंकड़े वर्तमान सरकार से ये सवाल करते हैं कि सस्ती खरीद, मगर मंहगी बिक्री से ये मुनाफाखोरी किसलिए?
एक और उदाहरण देखिए
तारीख पेट्रोल प्रति लीटर प्रतिशत परिवर्तन
16 मई 2004 33.71 रुपये
16 मई 2009 40.62 रुपये 20.49
16 मई 2014 71.41 रुपये 75.80
10 सितम्बर 2018 80.73 रुपये 13.05 (वृद्धि दर घटी)
ये आंकड़े कह रहे हैं कि पेट्रोल-डीज़ल के दाम में बढ़ोतरी की जो दर थी, वो घट गयी है। बीजेपी समर्थक कह रहे हैं कि दाम की बढ़ोतरी में इस कमी की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है।
दोनों उदाहरण ये बताने के लिए काफी है कि महंगाई को भी किस तरह राजनीतिक रूप से अपने-अपने पक्ष में बताया जा रहा है। यही हाल रुपया के कमजोर होने का भी है। कमजोर रुपये को भी दूसरे देशों के मुकाबले कम कमजोर बताकर फील गुड करने-कराने की कवायद जारी है।
अगर वास्तव कहीं कोई फील गुड होगा तो सबसे पहले जनता ही इसे महसूस करेगी। फील गुड का अहसास कराने की कोई ज़रूरत होती है क्या?