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सोमनाथ : साम्यवाद का एक टूटा सपना

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Somnath : A broken myth of Communism

सोमनाथ चटर्जी इस नश्वर संसार से विदा ले चुके हैं। वे अपने पिता निर्मल चंद्र चटर्जी की तरह वकील भी रहे और उनकी ही तरह सर्वोच्च संवैधानिक पद पर काम भी किया। एनसी चटर्जी अगर जज रहे, तो सोमनाथ चटर्जी लोकसभा के स्पीकर। पिता चटर्जी तीन बार सांसद रहे, तो सोमनाथ 10 बार। 25 जुलाई 1929 को असम के तेजपुर में जन्मे सोमनाथ चटर्जी ने कोलकाता और ब्रिटेन में पढ़ाई की।

वकालत में मन नहीं लगा क्योंकि उनके मन में साम्यवाद का सपना था। आश्चर्य है कि उनके पिता एनसी चटर्जी का भी मन वकालत में नहीं लगा था क्योंकि उनके मन में हिन्दू राष्ट्र का सपना था। अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के संस्थापक नेताओं में थे एनसी चटर्जी, मगर आज़ादी के बाद महात्मा गांधी की हत्या ने उन्हें अंदर से झकझोर दिया। कुछ समय के लिए पार्टी गतिविधियों से दूर हो गये। जज की भूमिका सम्भाल ली, लेकिन जल्द ही राजनीति में वापसी की।

एनसी चटर्जी हिन्दू महासभा के टिकट पर हुगली से चुनाव लड़कर 1952-57 तक सांसद रहे। मगर, जल्द ही संगठन से नाता भी तोड़ लिया। 1962 और 1967 में आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर बर्धमान सीट से लोकसभा पहुंचे। इन परिस्थितियों के ज़िक्र करने का मकसद ये बताना है कि ऐसा जरूर लगता है कि पिता एन.सी चटर्जी का अतीत दक्षिणपंथ था, फिर भी सोमनाथ चटर्जी ने वामपंथ का रास्ता चुना। मगर, वास्तव में तब तक एनसी चटर्जी का दक्षिणपंथ से मोह भंग हो चुका था।

हिन्दू राष्ट्र के नारे से वे खुद को अलग कर चुके थे। अपने रास्ते, अपने मकसद को वे गलत मान चुके थे। 1962 में सीपीआई के समर्थन से एनसी चटर्जी निर्दलीय सांसद बन थे और इसी माहौल में ही सोमनाथ चटर्जी ने 1964 में सीपीआई (एम) ज्वाइन किया। तब भारत-चीन युद्ध के बाद सीपीआई दो भागों में बंट गयी थी।

सोमनाथ चटर्जी पहली बार 1971 में सांसद बने। फिर वे लगातार संसद के लिए चुने जाते रहे। 10 बार लोकसभा का चुनाव जीता। आखिरी बार 2004 में चुनकर आए और तभी यूपीए वन के कार्यकाल में सर्वसम्मति से लोकसभा के स्पीकर चुने गये। 1996 में सोमनाथ चटर्जी को सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार दिया गया। समूचा जीवन सीपीएम के लिए होम कर देने के बाद सोमनाथ चटर्जी को तब झटका लगा, जब उन्हें ‘पार्टी विरोधी गतिविधियों’ का गुनहगार ठहराते हुए सीपीएम से निकाल दिया गया।

सोमनाथ चटर्जी और पार्टी विरोधी गतिविधि? क्या यह सम्भव है? यह सवाल तब भी था, अब भी है। मगर, कथित अनुशासन में बंधी सीपीएम में सोमनाथ चटर्जी के साथ अन्याय पर कोई हलचल नहीं हुई। सोमनाथ को ऐसा लगा मानो वे किसी मृतप्राय पार्टी में साम्यवाद का सपना देख रहे थे। हुआ ये था कि परमाणु करार के मुद्दे पर वामदलों ने मनमोहन सरकार से 2008 में समर्थन वापस ले लिया।

मनमोहन सरकार को विश्वासमत हासिल करना था और वामदलों को विरोध। सीपीएम ने विश्वासमत के विरोध का ह्विप जारी किया। स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने कहा कि वे किसी पार्टी से बंधे नहीं हैं क्योंकि स्पीकर हैं। इसलिए उन पर ह्विप लागू नहीं होता। मगर, सीपीएम ने उनकी एक नहीं सुनी। सोमनाथ चटर्जी को पार्टी विरोधी गतिविधि का जिम्मेदार ठहराकर पार्टी से निकाल दिया। तब की राजनीति में मनमोहन सरकार पर वैसे भी फर्क पड़ने वाला नहीं था क्योंकि मुलायम सिंह यादव वाला समाजवादी खेमा खुलकर समर्थन में आ चुका था। सो, मनमोहन सरकार बच गयी।

सोमनाथ चटर्जी ने अपने ही घर में हिन्दूवाद की सोच का पतन देखा था। हिन्दू महासभा के जनक एनसी चटर्जी को निर्दलीय सांसद बनते देखा था, लेकिन खुद सोमनाथ ने निर्दलीय चुनाव लड़ना या अपनी पार्टी से अलग किसी राजनीति को स्वीकार करना भी सही नहीं समझा। सोमनाथ ने मान लिया था कि उन्होंने जो साम्यवाद का सपना देखा था, वह बस सपना था। इस तरह देखा जाए तो चटर्जी परिवार देश का ऐतिहासिक परिवार है जहां हिन्दूवाद और हिन्दू राष्ट्र के सपने से लेकर साम्यवाद तक के सपने पले-बढ़े, मगर उनके जीते-जी ही दम भी तोड़ गये।

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