उम्मीद का चेहरा अखिलेश : काम आएगी हाथी की सवारी?
अखिलेश यादव उम्मीद का चेहरा हैं। समाजवादी युवा, विकासवादी युवा और प्रयोगवादी युवा। समाजवादी राजनीति विरासत में मिली, तो विदेश में शिक्षा के साथ विकासवादी नज़रिया उनके साथ है और राजनीति में सक्रिय रहते हुए प्रयोगधर्मिता को उन्होंने अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाया है।
2012 में किसी ने सोचा नहीं था कि अपने पिता के लिए पूरे प्रदेश में साइकिल चलाते हुए मेहनत करने वाले अखिलेश यादव सहज तरीके से बहुमत पाकर पिता मुलायम सिंह यादव के आशीर्वाद से मुख्यमंत्री बन जाएंगे। मगर, ऐसा हुआ। वहीं, 5 साल बाद स्थिति ऐसी बनी कि अखिलेश सत्ता से बाहर हो गये।
अखिलेश ने 2017 विधानसभा चुनाव में दो प्रयोग किए। एक अपने पिता की छत्रछाया से बाहर निकलना और दूसरा कांग्रेस से गठजोड़। कहा जाता है कि ये दोनों प्रयोग आत्मघाती साबित हुए।
अखिलेश को मिले उल्टे नतीजे
पिता-पुत्र ने 2012 में जहां समाजवादी पार्टी के लिए 224 सीटें जीती थीं, वहीं अलग रहकर नतीजे उल्टे आए। बगैर कांग्रेस के यह समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन था। मगर, कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी 2017 में महज 47 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही। ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस को इस गठबंधन से फायदा हुआ हो। कांग्रेस भी 2012 में 28 सीट के मुकाबले महज 7 सीटों पर सिमट गयी।
अखिलेश यादव ने इस प्रयोग की असफलता की नींव पर एक और प्रयोग की ईंट रख डाली। यह प्रयोग है मायावती का साथ। मुलायम सिंह की कट्टर विरोधी रही मायावती ने भी अखिलेश यादव का साथ तब कबूल किया जब अखिलेश की अपने पिता से एक दूरी बन चुकी थी। और, कांग्रेस के साथ अखिलेश कैसा संबंध रखे, यह तय करने की स्थिति में खुद मायावती आ गयीं।
गठबंधन से पहले लैब टेस्ट
अखिलेश को इस प्रयोग के लिए लैब टेस्ट भी करना पड़ा। यह लैब टेस्ट गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोकसभा चुनाव के दौरान हुआ। इसमें यह जोड़ी बीजेपी के विजय रथ को रोकने में कामयाब रही। अखिलेश की यह मान्यता पुख्ता हुई कि 2017 के विधानसभा चुनाव में उनकी हार नहीं हुई थी बल्कि बीजेपी की जीत हुई थी।
अखिलेश और मायावती 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर-प्रदेश को 37-37 में बांट चुके हैं। मगर, जनता उस पर मुहर लगाएगी या नहीं, देखने वाली बात यही है। समाजवादी कहते हैं कि कांग्रेस को समाजवादियों के वोट ट्रांसफर हो जाते हैं लेकिन समाजवादी पार्टी को कांग्रेसी वोट ट्रांसफर नहीं होते। मगर, सच ये है कि कांग्रेस को समाजवादी पार्टी से गठबंधन का अधिक नुकसान हुआ था। 2019 के आम चुनाव में असल सवाल ये है कि क्या एसपी और बीएसपी के वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर हो पाएंगे?
गठबंधन से फायदे में रहेंगे अखिलेश?
दावा किया जाता है कि बीएसपी के वोट जहां मायावती चाहती हैं वहां ट्रांसफर हो जाते हैं। अगर, ऐसा है तो सबसे फायदे की स्थिति में अखिलेश यादव को रहना चाहिए। वहीं अखिलेश ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ रहे जिससे मायावती और उनकी पार्टी बीएसपी को फायदा पहुंचाया जा सके। बीजेपी विधायक साधना सिंह ने मायावती के लिए जो अपशब्द कहे, उसका प्रतिकार करने में सबसे आगे अखिलेश यादव रहे। यानी वफादारी दिखाने में अखिलेश आगे हैं।
विगत लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 5 सीटें मिली थीं और बीएसपी को शून्य। जबकि, कांग्रेस को बीजेपी गठबंधन की 73 सीटों के मुकाबले 2 सीटें मिली थीं। अखिलेश-मायावती ने कांग्रेस के लिए इन्हीं 2 सीटों की गारंटी दी है। बाकी कांग्रेस अपने बूते पर करे, जो वह करना चाहती है।
नया प्रयोग पुराने प्रयोग के फेल होने पर मुहर
अखिलेश के इस नये प्रयोग का आधार ही पहले प्रयोग के गलत होने पर मुहर लगाती है। कांग्रेस के चुनाव मैदान में रहने से एसपी-बीएसपी गठबंधन को फायदा होने के आकलन में यह झलकता है। लेकिन अखिलेश के लिए दूसरा प्रयोग उनके राजनीतिक भविष्य को निर्धारित करने वाला साबित हो सकता है।
अखिलेश के लिए यह जरूरी है कि वह राष्ट्रीय लोकदल, निषाद पार्टी और दूसरे सम्भावित सहयोगी पार्टियों से दूर न रहें। अगर बीएसपी की संगत में रहकर ऐसा वे करते हैं तो उनका नुकसान होगा। हालांकि अखिलेश इसके लिए सचेत हैं मगर उन्हीं सहयोगी दलों पर कांग्रेस भी डोरे डाल रही है।
अगर अखिलेश-मायावती की जोड़ी ने यूपी की 80 में से आधी सीटें भी जीत लीं तो भावी राजनीति में अखिलेश अपने वजूद को मजबूत करते नज़र आएंगे। हालांकि विधानसभा चुनाव के दौरान मायावती उनके प्रति कितना उदार रहेंगी, यह भी देखने वाली बात होगी। फिलहाल अखिलेश ने पूरी उदारता दिखलायी है। मकसद एक है बीजेपी के ख़िलाफ़ अपने-अपने अस्तित्व को बचाने की आखिरी कोशिश।