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यूपी में गठबंधन तो मजबूत था कमजोर दिखा दिल

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मायावती ने गठबंधन तोड़ दिया

अखिलेश का साथ छोड़ दिया

सच निकली नरेंद्र मोदी की बात

गठबंधन नहीं महामिलावट?

एसपी-बीएसपी के रास्ते हो गये हैं अब अलग-अलग। जो 11 विधायक सांसद बने हैं उन जगहों पर जब उपचुनाव होंगे तो मैदान में एसपी भी होगी, बीएसपी भी। कांग्रेस और बीजेपी तो रहेंगे ही। मतलब ये कि उत्तर प्रदेश अब फिर चार हिस्सों में बंटकर चुनाव लड़ेगा। तब बीजेपी की होगी बल्ले-बल्ले।

बीजेपी नेता अब खुलकर कहने लगे हैं। अकेले लड़ो या मिलकर, नतीजा वही आने वाला है। कारण ये है कि यूपी के वोटरों में आधे पर बीजेपी का राज हो चुका है।

मायावती ने जब गठबंधन तोड़ने का एलान किया, तो उन्होंने आरोप जड़ दिया कि यादवों ने बीएसपी को वोट नहीं दिया। बीएसपी क्या खुद समाजवादी पार्टी को भी वोट नहीं दिया। मायावती ने अखिलेश के नेतृत्व क्षमता पर भी सवाल उठाए। कहा कि जब अपनी पत्नी को नहीं जिता सकते, चचेरे भाई की सीट सुनिश्चित नहीं कर सकते तो वे बीएसपी को क्या फायदा पहुंचाएंगे। ऐसे में इस गठबंधन के बने रहने का औचित्य नहीं है।

मन मारकर अखिलेश भी बोले। गठबंधन पर सोच समझकर बोलेंगे, मगर इसके लिए वक्त उन्होंने कुछ घंटों का ही लिया। उन्हें यह एलान करते देर नहीं लगी कि अगर रास्ते अलग हैं तो हम इसके लिए भी कार्यकर्ताओं को बधाई देते हैं।

है न आश्चर्य की बात। गठबंधन हो तो बधाई, गठबंधन टूटे तो बधाई। जिस बात के लिए गठबंधन के घटक दल एक-दूसरे को बधाई दे सकते थे उसके लिए तो उन्होंने कभी ज़ुबान तक नहीं खोली। ज़रा गौर कीजिए किन बातों पर बधाई दे सकते थे एसपी-बीएसपी और अखिलेश-मायावती।

UP में गठबंधन के लिए संतोष का विषय

यूपी में SP-BSP-RLD गठबंधन असरदार रहा। इस बात को मानने वाले ही खामोश हो गये। कम से कम तीन ऐसी महत्वपूर्ण बातें जरूर रहीं, जो यह बताती हैं कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन ने अपना असर दिखाया।

UP में गठबंधन के असर के प्रमाण

पहला प्रमाण

बीजेपी का वोट शेयर लगभग 7 फीसदी बढ़ा, मगर सीट नहीं बढ़ी

दूसरा प्रमाण

समाजवादी पार्टी का वोट शेयर 4.39 फीसदी घटा, मगर सीट नहीं घटी

तीसरा प्रमाण

बीएसपी का वोट शेयर लगभग बरकरार रहा, मगर सीट 10 बढ़ गयी

गठबंधन की ताकत के ये सबूत हैं मगर बीएसपी को लगता है कि उसे यादवों ने वोट नहीं किया। सच ये है कि बीएसपी के साथ दलित वोटर एकजुट नहीं दिखे।

दलित वोटरों ने छोड़ा मायावती का साथ?

BSP ने 10 सुरक्षित सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे मगर पार्टी 2 ही जिता पायी। उसमें भी मुस्लिम वोटों का योगदान अधिक रहा।

एसपी ने 7 सुरक्षित सीटों पर उम्मीदवार दिए मगर एक पर भी जीत नहीं मिली। मतलब ये कि दलित वोटर एसपी की ओर आकर्षित नहीं हुए।

एसपी भी यह सवाल उठा सकती थी, मगर अखिलेश इस स्वभाव के रहे नहीं। लिहाजा आरोप एकतरफा रह गया। अखिलेश को दोहरी मार पड़ गयी। एक हार का प्रहार, दूसरा बीएसपी का हमला जोरदार। बाकी हमले तो पहले की तरह जारी हैं ही। जब बीजेपी के नेताओँ ने प्रतिक्रिया दी, तो उसमें भी निशाने पर अखिलेश अधिक रहे। शायद इसकी वजह ये है कि बीजेपी को उम्मीद है कि बीएसपी को अपने साथ जोड़ा जा सकता है। यह उम्मीद इसलिए है क्योंकि राज्यसभा में बहुमत के जुगाड़ में बीजेपी बेचैन है। सवाल ये है कि अगर एक महामिलावट का हश्र बुरा हुआ है तो क्या राजनीति एक और महामिलावट के लिए तैयार है?

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