किंगमेकर चला किंग बनने, पूरा होगा प्रशान्त का सपना?
पीके ने किंग बनने की पहल की है। किंगमेकर बनन के लिए उन्होंने साहस दिखाया है या कि दुस्साहस, ये समझने की बात है। इसे समझने के लिए आपको थोड़ा करना होगा इंतज़ार। वास्तव में इस साहस या दुस्साहस का संबंध ही किंगमेकर से किंग बनने की स्टोरी है जो अभी पूरी नहीं हुई है, बल्कि इस स्टोरी की अभी शुरुआत हुई है।
वे मानने लगे कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तो इसलिए कि उनके चुनाव प्रचार का जिम्मा उन्होंने ही सम्भाला था। वे ये भी मानने लगे कि बिहार में महागठबंधन के बनने से लेकर नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने तक की घटना नहीं होती, अगर उन्होंने अपनी भूमिका न निभाई होती। यानी अगर वे किंगमेकर न होते, तो ऐसा कतई सम्भव नहीं होता।
यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार मानने के बजाए वे मानने लगे कि उनकी बात नहीं मानी गयी, इसलिए हुई हार। ऐसे में अब उन्होंने खुद से ही ले ली है रार। चुनाव की नीति-रणनीति दूसरों के लिए बनाकर कब तक बने रहेंगे किंगमेकर। क्यों न खुद को किंग बनाने में जुटा जाए। इसी भावना के साथ जनाब प्रशान्त किशोर का राजनीति में पदार्पण हुआ है। उनके मेंटर बने हैं नीतीश कुमार, जी हां, मुख्यमंत्री बिहार।
प्रशान्त-नीतीश की जोड़ी किसी प्रीति को प्रदर्शित करती हो, ऐसा समझने की भूल न करें। यह रणनीतिक जोड़ी है। मगर, क्या है रणनीति प्रशान्त किशोर की? क्यों उन्होंने नीतीश कुमार का दामन थाम लिया? क्यों नहीं उन्होंने बीजेपी का दामन थामा? क्या हैं इसके राजनीतिक कारण? क्या होगा इसका अंजाम?
पहली बात ये है कि बीजेपी में न तो प्रधानमंत्री पद के लिए और न ही बिहार में मुख्यमंत्री पद के लिए को वेकेन्सी है या इसकी सम्भावना है। कहने का ये मतलब कतई नहीं है कि प्रशान्त किशोर इन्हीं दो पद के लिए राजनीति में आए हैं। इसे और स्पष्ट रूप से समझें कि प्रशान्त किशोर को ये नहीं लगता कि केन्द्र में बीजेपी के नेतृत्व में सरकार बनने वाली है। बिहार में तो ऐसा सम्भव ही नहीं। मगर, इसका मतलब ये भी नहीं है कि एनडीए की केन्द्र में सरकार नहीं बनने वाली है।
आने वाले समय में क्या प्रशान्त किशोर को ये उम्मीद नहीं है कि बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार दोहरायी जाने वाली है? अगर ऐसी उम्मीद होती, तो वे जेडीयू के बजाए बीजेपी का दामन थामना बेहतर समझते। कुछ लोग कह सकते हैं कि बीजेपी में उन्हें यह भाव नहीं दिया जाता। यह सही होते हुए भी सत्ता के केन्द्र में बने रह सकते थे प्रशान्त किशोर।
मगर, दूसरा राजनीतिक आकलन ये है कि सरकार तो एनडीए की बनेगी, मगर बीजेपी की हैसियत अब जैसी नहीं होगी। सम्भव है कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री ही न बन पाएं। तो एनडीए में वो दूसरा कौन सा नाम है जो सबको स्वीकार्य हो सकता है? जाहिर है नीतीश कुमार से अधिक मजबूत दावेदार कोई और नहीं।
ऐसी स्थिति में प्रशान्त किशोर के लिए दोनों हाथों में लड्डू होंगे। अगर नीतीश ने बिहार की राजनीति छोड़ी और नरेन्द्र मोदी की तर्ज पर सीएम से पीएम बनने की उनकी हसरत पूरी हुई, तो बिहार में भी नये चेहरे की तलाश रहेगी। पहली नज़र में ऐसा नहीं लगता कि किसी सवर्ण पर मुख्यमंत्री के तौर पर जेडीयू दांव खेलेगा। मगर, एक दलित को सीएम बनाने का खामियाजा नीतीश कुमार भुगत चुके हैं, इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए।
एक बात और है कि ओबीसी-सवर्ण की जोड़ी का दांव नीतीश कुमार खेल सकते हैं। यह उनकी सियासी ज़रूरत के लिए भी फिट है। दूसरी बात ये है कि नीतीश कुमार को स्टैंड बदलने में कितना समय लगता है ये भी दुनिया जानती है। 24 घंटे में महागठबंधन के सीएम से वे एनडीए के सीएम बन जाने का माद्दा रखते हैं। इसलिए जब कभी भी प्रशान्त किशोर का विकल्प खोजना होगा, तो दलित कार्ड फिर से खेलने में उन्हें मुश्किल नहीं होगी।
प्रशान्त किशोर को देखकर शिवानन्द तिवारी का चेहरा अनायास घूम जाता है। वे भी ब्राह्मण और प्रशान्त किशोर भी। शिवानन्द ने भी राजनीति में खूब पाले बदले हैं और प्रशान्त किशोर तो राजनीति में आने से पहले ही प्रोफेशनली पाले बदलते रहे हैं। राजनीति में प्रशान्त को इस अनुभव का भी लाभ मिलने वाला है। दबाव की राजनीति शिवानन्द अपनी पार्टी के भीतर करने में माहिर रहे थे, क्योंकि उनका बाहर वाला सम्पर्क हमेशा उन्हें हिम्मत देता रहता था। यही खूबी प्रशान्त किशोर में भी देखने को मिल सकती है।
प्रशान्त-नीतीश की जोड़ी का बैक अप प्लान भी है, मगर यह सम्भावना पर निर्भर करता है। सम्भावना है कि अगर एनडीए को बहुमत नहीं मिला और जेडीयू की ताकत ऐसी रही कि यूपीए से जुड़कर सरकार बनायी जा सकती है तो इस जोड़ी की नज़र उस स्थिति पर भी ज़रूर है। यह बैकअप प्लान प्रशान्त किशोर के लिए भी मजबूत हो सकता है। उनकी और नीतीश दोनों की राहुल गांधी से नजदीकी रही है।
ऊपर चर्चा की गयी स्थितियां अटकल नहीं हैं। एक प्रोफेशनल थिंकिंग जब राजनीति में आएगी, तो वह किस तरह से व्यवहार करेगी उसकी तस्वीर इसमें दिखती है। यह राजनीति में अवसरवाद का नया रूप हो सकता है, नया युग हो सकता है। एक प्रोफेशनल ने देश के प्रमुख राजनीतिज्ञों को अपनी पकड़ में जकड़ लिया, इस बात से कौन इनकार कर सकता है? नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, अमरिन्दर सिंह हर किसी के साथ न सिर्फ इनका जुड़ाव हुआ, बल्कि अलगाव के बावजूद दोबारा जुड़ने की परिस्थिति कभी ख़त्म नहीं हुई।