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औरंगाबाद : 2019 में क्या बचेगा चित्तौड़गढ़?

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बिहार का चितौड़गढ़ है औरंगाबाद। पार्टी कोई भी हो, सांसद क्षत्रिय ही होता आया है। 1952 से 2014 तक का संसदीय इतिहास यही है। इसे खास तौर पर दो परिवारों के वर्चस्ववाली संसदीय सीट भी कहा जाता रहा है। एक है ‘छोटे साहब’ का परिवार और दूसरा ‘लूटन सिंह’ का परिवार। बाबू सत्येंद्र नारायण सिन्हा का सम्मान औरंगाबाद में ‘छोटे साहब’ के रूप में रहा है। वहीं,‘लूटन सिंह’ का असली नाम राम नरेश सिंह है। ‘बड़े साहब’ का रुतबा बिहार विभूति डॉ अनुग्रह नारायण सिंह के लिए रहा है जो बिहार के पहले डिप्टी सीएम बने।

वक्त बदला। ज़माना भी बदल गया। लोकतंत्र के साये में सामंतवाद की छाया सिमटने लगी। या यूं कहिए सूरज भी दक्षिणायन होने लगा। तभी लूटन सिंह भी छोटे साहब के परम्परागत साए से छिटककर राजनीति में ऊंचाई पाने के लिए ज़मीन और खाद-बीज ढूढंने में सफल होते चले गये। औरंगाबाद की सियासत धीरे-धीरे छोटे साहब और लूटन सिंह परिवार के बीच दो ध्रुवों के रूप में बनती बढ़ती चली गयी।

मगर, 2019 में यह सिलसिला टूट गया है। इसलिए नहीं कि ‘छोटे साहब’ परिवार की सियासत का बैटन थामे निखिल कुमार पीछे हट गए हैं, बल्कि लोकतंत्र में गठबंधन की सियासत ने उनके चुनाव मैदान में खड़े रहने की सम्भावना पर ग्रहण लगा दिया है। लूटन सिंह का परिवार तो चुनाव मैदान में है लेकिन छोटे साहब के रूप में मशहूर सत्येन्द्र बाबू का परिवार चुनाव मैदान से बाहर हो चुका है। एक तरफ बीजेपी की ओर से लूटन सिंह के पुत्र सांसद सुशील कुमार सिंह चुनाव मैदान में खड़े हैं तो उनके मुकाबले हैं महागठबंधन के उम्मीदवार उपेन्द्र प्रसाद जो हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा यानी हम के नेता हैं।

मतलब ये कि मिनी चितौड़गढ़ में राजपूत-राजपूत के बीच का संघर्ष अब इतिहास हो गया। हर हाल में सांसद राजपूत ही होगा, इस मिथक के भी टूटने के आसार हैं क्योंकि उपेन्द्र प्रसाद राजपूत नहीं है।

ऐसे में सवाल ये है कि

क्या ‘बिहार के चितौड़गढ़’ का चरित्र औरंगाबाद खोने वाला वाला है?

क्या पहली बार औरंगाबाद में परम्परा टूटने वाली है?

क्या परिवार और घरानों से बाहर औरंगाबाद चुनेगा सांसद?

क्या कोई गैर राजपूत औरंगाबाद का प्रतिनिधित्व करेगा?

बिल्कुल, इन सारे सवालों का जवाब है हां, अगर महागठबंधन उम्मीदवार उपेंद्र प्रसाद की जीत हो जाती है। ऐसा नहीं है कि औरंगाबाद में दोनों परिवार खास दल के लिए प्रतिबद्ध रहे हैं। दल बदलने में छोटे साहब और लूटन परिवार की सानी नहीं है।

अगर अतीत में झांकें तो

1952 और 1957 में औरंगाबाद की लोकसभा सीट पर सत्येन्द्र नारायण सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर जीत दर्ज की। जब वे बिहार की राजनीति में सक्रिय हुए, 1961 में शिक्षा मंत्री बने ‘छोटे साहब’ तो 1962 में रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह परिवार की महारानी ललिता राजलक्ष्मी को औरंगाबाद के प्रतिनिधित्व का मौका मिला। उनके बाद यही अवसर 1967 में मुंद्रिका सिंह को प्राप्त हुआ। 1971 में एक बार फिर छोटे साहब संसदीय सियासत में लौटे, मगर इस बार कांग्रेस (O) के टिकट पर वे सांसद चुने गये। 1977 आते-आते वे जनता पार्टी के साथ जुड़ चुके थे और सांसद बने। 1980 में भी वे जनता पार्टी के टिकट पर सांसद चुने गये। 1984 में एक बार फिर ‘छोटे साहब’ कांग्रेसी हो गये और इसी रूप में लोकसभा की दहलीज पर कदम रखा।

मगर, 1989 आते-आते देश में वीपी सिंह की अगुआई में बोफोर्स के भूत ने कांग्रेस विरोधी माहौल पैदा कर दिया। इसी समय छोटे साहब ने संसदीय राह से वापस लौटते हुए 11 मार्च 1989 को बिहार की कमान सम्भाल ली और मुख्यमंत्री बनने के उनके परिवार का सपना पूरा हुए। मगर, ये मौका लूटन सिंह के लिए बड़ा था। इस मौके का उन्होंने फ़ायदा भी उठाया।

जनता दल के टिकट पर 1989 में राम नरेश सिंह उर्फ लूटन सिंह ने लोकसभा का चुनाव जीत लिया। छोटे साहब ने 1991 में परिस्थिति को बदलना चाहा, मगर कहानी फिर वही दोहरा दी गयी। लूटन सिंह दोबारा सांसद चुने गये।

1996 में अगला चुनाव भी छोटे साहब हार गये। वीरेंद्र कुमार सिंह सांसद चुने गये। मगर, छोटे साहब और लूटन सिंह परिवार में सियासी संग्राम आगे नये सिरे से मजबूत होता चला गया।

1998 में समता पार्टी के टिकट पर लूटन सिंह के बेटे सुशील कुमार सिंह ने पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ाया। मगर, 1999 में छोटे साहब की बहू श्यामा सिंह ने एक बार फिर अपनी पुश्तैनी सीट को अपने कब्जे में कर दिखाया। औरंगाबाद में कांग्रेस की वापसी हुई। तब दिल्ली में पुलिस कमिश्नर रह चुके ‘छोटे साहब’ के सुपुत्र निखिल कुमार की राजनीतिक पारी शुरू नहीं हुई थी क्योंकि तब तक वे आईपीएस की नौकरी से सेवानिवृत्त नहीं हुए थे। मगर, 2004 आते-आते निखिल कुमार ने पारिवारिक राजनीतिक विरासत का बैटन खुद थामने का फैसला किया और सांसद बने। 2009 और 2014 में लगातार दो बार यहां लूटन परिवार का परचम लहराया। सुशील कुमार सिंह ने पहले जेडीयू के टिकट पर और फिर बीजेपी के टिकट पर यह लोकसभा सीट अपने नाम कर ली।

2019 में लूटन परिवार के सुशील कुमार सिंह एक बार फिर बीजेपी के टिकट पर चुनाव मैदान में डटे हैं, मगर इस बार उनका सामना छोटे साहब के परिवार से नहीं है बल्कि महागठबंधन उम्मीदवार उपेंद्र प्रसाद से है। चुनाव मैदान में 7 उम्मीदवार और भी हैं मगर मुकाबला इन दो के बीच ही ठहर गया लगता है।

2014 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 3 लाख 7 हज़ार 941 वोट मिले। वहीं कांग्रेस को 2 लाख 41 हज़ार 594 वोट प्राप्त हुए। अगर औरंगाबाद लोकसभा सीट के जातीय समीकरण पर नज़र दौड़ाएं तो औरंगाबाद में….

औरंगाबाद में जातीय समीकरण

जाति          प्रतिशत

राजपूत         11.61

यादव          15.41

मुसलमान      10.77

कोईरी          6.32

भूमिहार       3.66

ब्राह्मण        2.28

एससी         6.62

महादलित      8.63

स्रोत : पुस्तक राजनीति की जाति, वीरेंद्र कुमार

औरंगाबाद की सियासत में बदलाव आने से इस संसदीय सीट पर पिछड़ी जातियों का वर्चस्व साफ नज़र आता है। मगर, यह चुनाव नतीजे में अब तक नहीं दिखा है। बदली हुई परिस्थिति में मुसलमान और दलित, महादलित व पिछड़े वोटों की गोलबंदी से औरंगाबाद की सीट पर क्षत्रिय प्रभुत्व को आंच आ सकती है, ऐसा कहा जा रहा है।

औरंगाबाद लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत विधानसभा की 6 सीटें आती हैं- कटुम्बा, औरंगाबाद, रफीगंज, गुरुआ, इमामगंज और टिकारी

इनमें जेडीयू के पास दो सीटें हैं जबकि दो सीटें कांग्रेस के पास और एक-एक सीट बीजेपी एवं हम के पास हैं। इसका मतलब ये है कि बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के पास तीन सीटे हैं और महागठबंधन के पास भी 3 सीटें। मुकाबला बराबरी का है। अगर सुशील कुमार सिंह जीतने में कामयाब रहते हैं तो कहा जा सकता है कि बिहार के चित्तौड़गढ़ के रूप में औरंगाबाद ने अपने आपको बचाए रखा है और ऐसा नहीं हुआ तो माना जाएगा कि यह रुतबा अब नहीं रहा। मगर, एक बात जो चुनाव नतीजों से पहले ही साफ हो चुकी है वो ये कि 67 साल से लगातार औरंगाबाद की संसदीय सीट पर ताल ठोंकता छोटे साहब का परिवार चुनावी जंग से बाहर हो चुका है। 33 साल तक सांसद देने वाला यह परिवार महागठबंधन की सियासत में कांग्रेस की कुर्बानी की नजीर बन चुका है।

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