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‘गाँधी’ से राहुल को नफ़ा भी नुकसान भी

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राहुल को उत्तर देना है कि गांधी सरनेम के बिना उनका वजूद क्या है? लंदन में विद्वान पत्रकारों ने उनसे यह सवाल पूछा है। इस सवाल को और साफ करें तो सवाल ये है कि क्या राहुल के नाम के आगे अगर गांधी सरनेम नहीं होता तो वे कांग्रेस के अध्यक्ष बन पाते?

वैसे, इस सवाल का उत्तर यही है कि तब राहुल अध्यक्ष नहीं बन पाते। लेकिन, जरा ठहरिए। अगर गांधी सरनेम नहीं होता तो राहुल गांधी और भी कुछ नहीं होते। गांधी सरनेम समेत राहुल ‘पप्पू’ करार नहीं दिए जाते। ऐसा भी नहीं होता कि राहुल को ‘शहजादा’ पुकारा जाता। ‘चम्मच लेकर पैदा होने वाले’ भी उन्हें इसलिए सुनना पड़ता है कि राहुल के नाम के आगे गांधी लगा हुआ है।

राहुल को इमर्जेंसी के लिए भी जवाब देना पड़ता है, नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार का भी। राहुल ही क्यों सोनिया गांधी को भी ‘विदेशी बहू’ का गिफ्ट सिर्फ इसलिए मिला क्योंकि उनका सरनेम गांधी था। सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकराया क्योंकि उन्होंने अपने विरोधियों की भावना का सम्मान किया। देश ने देखा था कि किस तरह से सुषमा स्वराज और उमा भारती सरीखे स्वदेशी महिलाओं ने सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर अपने सिर मुड़ा लेने और अनन्त सत्याग्रह करने की चेतावनी दी थी।  बाद में विदेशी मूल का मुद्दा ख़त्म हो गया।

अब ये बात आसानी से समझी जा सकती है कि विदेशी मूल का मुद्दा भी इसलिए था क्योंकि सोनिया के नाम के आगे ‘गांधी’ लगा था। कौन नहीं जानता कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था, उनके लिए कुर्सी छोड़ने की पेशकश की थी। हां, यह पेशकश भी इसलिए थी क्योंकि राहुल ‘गांधी’ थे।

मगर, क्या राहुल ने उसे स्वीकार किया? नहीं। क्यों? क्योंकि, राहुल ने कभी अपने सरनेम ‘गांधी’ से उपकृत होना नहीं चाहा। राहुल गांधी 2004 में पहली बार सांसद बने। 2017 में कांग्रेस की कमान सम्भाली। इतना वक्त क्यों लगा? उनकी ताजपोशी सरकार या संगठन में पहले भी हो सकती थी क्योंकि वे ‘गांधी’थे। मगर, राहुल ने इस सुविधा का लाभ भी नहीं उठाया।

राहुल ने कांग्रेस का दामन इसके उत्कर्ष काल में नहीं सम्भाला। उस समय सम्भाला, जब कांग्रेस अपने बुरे दौर से गुजर रही थी। राहुल के पास अगर गांधी सरनेम नहीं होता तो क्या होता?

–    राहुल को अपनी दादी से विलग होना नहीं पड़ता, जिनकी 1984 में उनके ही बॉडीगार्ड ने हत्या कर दी थी। –    सन् 84 के सिख दंगे का हिसाब भी 2018 में राहुल से कोई नहीं मांग रहा होता।

–    राहुल को भरी जवानी में अपने पिता की हत्या देखनी नहीं पड़ती। पितृहीन बनकर जीने को अभिशप्त होना नहीं पड़ता।

–    सोनिया को भी राजनीति में आने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ये गांधी सरनेम ही है जिसने अनिच्छा के बावजूद सोनिया को कांग्रेस से जोड़ा।

नरसिम्हाराव के जमाने में उदारीकरण के दौर में अपनी नीतियों से भटक चुकी कांग्रेस को सोनिया के गांधी सरनेम ने ही पटरी पर लाया। सोनिया गांधी ने यूपीए की चेयरमेन के तौर पर देश को मनरेगा के रूप में कल्याणकारी अर्थशास्त्र का विज़न दिया।

सोनिया ने ही कांग्रेस को गठबंधन की राजनीति में उतरने से लेकर आगे बढ़ने तक का रास्ता दिखलाया। अब अपनी मां सोनिया से सीख लेते हुए राहुल ने भी कांग्रेस में पद और जिम्मेदारी पर ध्यान न देकर सिर्फ काम पर ध्यान लगाया है। देश में आज जो महागठबंधन का विज़न है वह राहुल गांधी का विज़न है। राहुल गांधी से यह कैसी अपेक्षा है कि उस सरनेम के फायदे वह ना लें जिसने उन्हें ज़ख्म दिए हैं।

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